SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 249
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ धर्म ने संसार के स्वरूप का विवेचन विभिन्न द्रव्यों और क्रूरता जन्म लेती है, विलासिता बढ़ती है और हम अधार्मिक पदार्थों के माध्यम से किया है। वह केवल आत्मा और हो जाते हैं। परमात्मा के स्वरूप पर ही विचार नहीं करता, अपितु मनुष्य हमने शरीर के स्वभाव को समझने में जो भूल की वही और उसके आसपास के वातावरण का भी अध्ययन प्रस्तुत भूल प्रकृति को समझने में करते हैं। प्रकृति के प्राणतत्व का करता है। प्रकृति और मनुष्य को गहराई से जानने और संवेदन हमने अपनी आत्मा में नहीं किया। हम यह नहीं जान समझने का प्रयत्न ही पर्यावरण को सही ढंग से संरक्षित सके कि वृक्ष हमसे अधिक करुणावान एवं परोपकारी हैं। करने का आधार है। मनुष्य सम्पदा, जल-समूह एवं हमने धरती की ये धड़कनें नहीं सुनी, जो उसका खनन करते वायुमण्डल के समन्वित आवरण का नाम है-पर्यावरण। समय उससे निकलती हैं। प्रकृति का स्वभाव जीवन्त वस्तुतः सम्पूर्ण प्रकृति और मनुष्य के उसके साथ सम्बन्धों सन्तुलन बनाये रखने का है, उसे हम अनदेखा कर गये। में मधुरता का नाम ही पर्यावरण-संरक्षण है। पर्यावरण के हमने प्रकृति को केवल वस्तु मान लिया, लेकिन वस्तु का विभिन्न आधार और साधन हो सकते हैं। किन्तु धर्म उनमें स्वभाव क्या है, यह जानने की हमने कोशिश नहीं की। प्रमुख आधार है। समता, अहिंसा, संतोष, अपरिग्रहवृत्ति, परिणामस्वरूप हमने अपने क्षणिक सुख और अमर्यादित शाकाहार का व्यवहार आदि जीवन-मूल्यों के द्वारा ही स्थायी लालच की तृप्ति के लिए प्रकृति को रौंद डाला, उसे क्षतरूप से पर्यावरण को शुद्ध रखा जा सकता है। ये जीवन- विक्षत कर दिया, उसका परिणाम हमारे सामने है। जैसे मूल्य जैन धर्म के आधार स्तम्भ हैं। मनुष्य जब अपने स्वभाव को खो देता है तब वह क्रोध __ धर्म के स्वरूप को प्रतिपादित करते हुए जैन आगमों में करता है, विनाश की गतिविधियों में लिप्त होता है, वैसे ही एक महत्वपूर्ण गाथा कही गयी है - स्वभाव से रहित की गयी प्रकृति आज अनेक समस्याएं पैदा धम्मो वत्थुसहावो, खमादिभावो य दसविहो धम्मो। कर रही है। रयणत्तयं च धम्मो, जीवाणं रक्खणं धम्मो।। शरीर, प्रकृति एवं अन्य भौतिक वस्तुओं के स्वभाव की वस्तु का स्वभाव धर्म है, क्षमा, मार्दव, आर्जव आदि दस जानकारी के साथ यदि व्यक्ति आत्मा के स्वभाव को भी आत्मा के भाव धर्म हैं। रत्नत्रय (सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं जानने का प्रयत्न करे तो वस्तुओं को संग्रह करने एवं उनमें सम्यग्चारित्र) धर्म हैं तथा जीवों का रक्षण करना धर्म है। धर्म आसक्ति की भावना धीरे-धीरे कम हो जायेगी। क्योंकि ये की यह परिभाषा जीवन के विभिन्न पक्षों को समुन्नत करने सब वृत्तियां भयभीत, असुरक्षित, अज्ञानी व्यक्ति की निर्भरता वाली है। पर्यावरण की शुद्धता के परिप्रेक्ष्य में इस प्रकार के । के कारण उत्पन्न हुई हैं। जब मानव को यह पता चल जाय धर्म की बड़ी सार्थकता है। कि उसकी आत्मा स्वयं सभी शक्तियों से युक्त है, उसे धर्म नाम स्वभाव का बाहर की कोई शक्ति सहारा नहीं दे सकती और न ही वस्तु के स्वभाव को धर्म कहना बड़ी असाम्प्रदायिक आत्मा को कोई नुकसान पहुंचा सकता है तब मानव स्वयं घोषणा है धर्म के सम्बन्ध में। कोई जाति, कोई व्यक्ति, निर्भय बन जायेगा, आत्म निर्भर बन जायेगा। फिर उसे किसी शास्त्र, किसी देश या विचारधारा का इस परिभाषा में वस्तुओं के ढेर और शस्त्रों के संग्रह की क्या आवश्यकता? कोई बन्धन नहीं है। विश्व की जितनी वस्तुएं हैं, उनके मूल जो व्यक्ति अपनी आत्मा के स्वभाव को जान लेगा कि वह स्वभाव को जान लेना, उन्हें अपने-अपने स्वभाव में ही रहने दयालु है, जीवन्त है, निर्भय है तब वह यह भी जान जायेगा देना सबसे बड़ा धर्म है। हमारे शरीर का स्वभाव है- जन्म कि विश्व के सभी प्राणियों का स्वभाव यही है। तब अपनी लेना, वृद्धि करना और समय आने पर नष्ट हो जाना इत्यादि। आत्मा जैसे कीमती एवं उपयोगी प्राणियों की हत्या, दमन, किन्तु जब हम इससे भिन्न शरीर से अपेक्षा करने लगते हैं शोषण करने की क्या आवश्यकता है? इस समता के भाव तो हम अधर्म की ओर गमन करते हैं। शरीर को अधिक से ही क्रूरता मिट सकती है। आत्मा के इसी स्वभाव को सुख देकर उसे अमर बनाना चाहते हैं। बाहरी प्रसाधनों से जानने के लिए क्षमा, मृदुता, सरलता, पवित्रता, सत्य, संयम, सजाकर उसकी भीतरी अशुचिता से मुख मोड़ना चाहते हैं। तप, त्याग निस्पृही वृत्ति, ब्रह्मचर्य इन दस प्रकार के आत्मिक अपने शरीर के सुख के लिए दूसरों के शरीर को समय से गुणों को जानने को धर्म कहा गया है। इन गुणों की साधना पहले नष्ट कर देना चाहते हैं तो इससे शोषण पनपता है, से आत्मा और जगत के वास्तविक स्वभाव के दर्शन हो विद्वत् खण्ड/७० शिक्षा-एक यशस्वी दशक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012030
Book TitleJain Vidyalay Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhupraj Jain
PublisherJain Vidyalaya Calcutta
Publication Year2002
Total Pages326
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy