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________________ में गमन करने की शक्ति) से वे वायुवेग की गति से कुछ ही क्षणों इधर, गौतम स्वामी ने "मन के मनोरथ फलें हो' ऐसे उलास में अष्टापद की उपत्यका में पहुँच गये। से अष्टापद पर्वत पर चक्रवर्ती भरत द्वारा निर्मापित एवं तोरणों से इधर कौडिन्य, दिन (दत्त) और शैवाल नाम के तीन तापस भी सुशोभित तथा इन्द्रादि देवताओं से पूजित-अर्चित नयनाभिराम 'इसी भव में मोक्ष-प्राप्ति होगी या नहीं' का निश्चय करने हेतु अपने- चतुर्मुखी प्रासाद/मन्दिर में प्रवेश किया। निज-निज काय / देहमान अपने पांच सौ-पांच सौ तापस शिष्यों के साथ अष्टापद पर्वत पर के अनुसार चारों दिशाओं में ४, ८, १०, २ की संख्या में चढ़ने के लिये क्लिष्ट तप कर रहे थे। विराजमान चौबीस तीर्थंकरों के रत्नमय बिम्बों को देखकर उनकी । इनमें से कौडिन्य उपवास के अनन्तर पारणा कर फिर उपवास रोम-राजि विकसित हो गई और हर्षोत्फुल्ल नयनों से दर्शन किये। करता था। पारणा में मूल, कन्द आदि का आहार करता था। वह श्रद्धा-भक्ति पूर्वक वन्दन-नमन, भावार्चन किया। मधुर एवं गम्भीर अष्टापद पर्वत पर चढ़ा अवश्य, किन्तु एक मेखला/सोपना से आगे स्वरों में तीर्थंकरों की स्तवना की। दर्शन-वन्दन के पश्चात् सन्ध्या . न जा सका था। हो जाने के कारण तीर्थ-मन्दिर के निकट ही एक सघन वृक्ष के नीचे दिन (दत्त) तापस दो-दो उपवास का तप करता था और पारणा शिला पर ध्यानस्थ होकर धर्म जागरण करने लगे। में नीचे पड़े हुए पीले पत्ते खा कर रहता था। वह अष्टापद की दुसरी वज्रस्वामी के जीव को प्रतिबोध - मेखला तक ही पहुँच पाया था। धर्म-जागरण करते समय अनेक देव, असुर और विद्याधर वहाँ शैवाल तापस तीन-तीन उपवास की तपस्या करता था। पारणा आये, उनकी वन्दना की और गौतम के मुख से धर्मदेशना भी में सूखी शैवाल (सेवार) खा कर रहता था। वह अष्टापद की तीसरी सुनकर कृतकृत्य हुए। मेखला ही चढ़ पाया था। इसी समय शक्र का दिशापालक वैश्रमण देव, (शीलांकाचार्य के तीन सोपान (पगोथियों) से ऊपर चढ़ने की उनमें शक्ति नहीं अनुसार गन्धर्वरति नामक विद्याधर) जिसका जीव भविष्य में थी। पर्वत की आठ मेखलायें थी। अन्तिम/अग्रिम मेखला तक कैसे दशपूर्वधर वज्र स्वामी बनेगा, तीर्थ की वन्दना करने आया। पुलकित पहुँचा जाए? इसी उधेड़बुन में वे सभी तापस चिन्तित थे। भाव से देव-दर्शन कर गौतम स्वामी के पास आया और भक्ति पूर्वक इतने में उन तपस्वी जनों ने गौतम स्वामी को उधर आते देखा। वन्दन किया। गुरु गौतम के सुगठित, सुदृढ, सबल एवं हृष्टपुष्ट शरीर इनकी कान्ति सूर्य के समान तेजोदीप्त थी और शरीर सप्रमाण एवं को देखकर विचार करने लगा- "कहाँ तो शास्त्र-वर्णित कठोर भरावदार था। मदमस्त हाथी की चाल से चलते हुए आ रहे थे। उन्हें तपधारी श्रमणों के दुर्बल, कृशकाय ही नहीं, अपितु अस्थि-पंजर का देखकर तापसगण ऊहापोह करने लगे "हम महातपस्वी और दुबले- उलेख और कहाँ यह हृष्टपुष्ट एवं तेजोधारी श्रमण! ऐसा सुकुमार पतले शरीर वाले भी ऊपर न जा सके, तो यह स्थूल शरीर वाला शरीर तो देवों का भी नहीं होता! तो, क्या यह शास्त्रोक्त मुनिधर्म का श्रमण कैसे चढ़ पाएगा?" पालन करता होगा? या केवल परोपदेशक ही होगा?" वे तपस्वी शंका-कुशंका के घेरे में पड़े हुए सोच ही रहे थे कि गुरु गौतम उस देव के मन में उत्पन्न भावों/विचारों को जान गए इतने में ही गरू गौतम करोलिया के जाल के समान चारों तरफ और उसकी शंका को निर्मूल करने के लिये पुण्डरीक कण्डरीक का फैली हुई आत्मिक-बल रूपी सूर्य किरणों का आधार लेकर जीवन-चरित्र (ज्ञाता धर्म कथा १६ वां अध्ययन) सुनाया और उसके जंघाचारण लब्धि से वेग के साथ क्षण मात्र में अष्टापद पर्वत की माध्यम से बतलाया - महानुभाव! न तो दुर्बल, अशक्त और अन्तिम मेखला पर पहुँच गए। तापसों के देखते-देखते ही अदृश्य निस्तेज शरीर ही मुनित्व का लक्षण बन सकता है और न स्वस्थ, हो गए। सुदृढ़, हृष्टपुष्ट एवं तेजस्वी शरीर मुनित्व का विरोधी बन सकता है। यह दृश्य देखकर तापसगण आश्चर्य चकित होकर विचारने वास्तविक मुनित्व तो शुभध्यान द्वारा साधना करते हुए संयम यात्रा लगे - "हमारी इतनी विकट तपस्या और परिश्रम भी सफल नहीं में ही समाहित/विद्यमान है। हुआ, जबकि यह महापुरुष तो खेल-खेल में ही ऊपर पहुंच गया। वैश्रमण देव की शंका-निर्मूल हो गई और वह बोध पाकर निश्चय ही इस महर्षि महायोगी के पास कोई महाशक्ति अवश्य होनी श्रद्धाशील बन गया। चाहिए।'' उन्होंने निश्चय किया "ज्योंही ये महर्षि नीचे उतरेंगे हम तापसों की दीक्षा : केवलज्ञान - ता उनके शिष्य बन जायेंगे। इनकी शरण अंगीकार करने से हमारी मोक्ष प्रात:काल जब गौतम स्वामी पर्वत से नीचे उतरे तो सभी की आकांक्षा अवश्य ही सफलीभूत होगी।' तापसों ने उनका रास्ता रोक कर कहा – “पूज्यवर! आप हमारे गुरू हैं और हम सभी आपके शिष्य है।" विद्वत खण्ड/१२० शिक्षा-एक यशस्वी दशक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012030
Book TitleJain Vidyalay Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhupraj Jain
PublisherJain Vidyalaya Calcutta
Publication Year2002
Total Pages326
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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