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________________ धीरज शुक्ला , १० ब विनय से तत्त्व की सिद्धि है राजगृही नगरी के राज्यासन पर जब श्रेणिक राजा विराजमान था तब उस नगरी में एक चांडाल रहता था। एक बार उस चांडाल की स्त्री को गर्भ रहा तब उसे आम खाने की इच्छा उत्पन्न हुई। उसने आम ला देने के लिये चांडाल से कहा। चांडाल ने कहा, "यह आम का मौसम नहीं है, इसलिये मैं निरुपाय हूँ; नहीं तो मैं आम चाहे जितने ऊँचे स्थान पर हो वहाँ से अपनी विद्या के बल से लाकर तेरी इच्छा पूर्ण करूँ।" चांडाली ने कहा, "राजा की महारानी के बाग में एक असमय में आम देनेवाला आम्रवृक्ष है, उस पर अभी आम लचक रहे होंगे, इसलिये वहाँ जाकर आम ले आओ।" अपनी स्त्री की इच्छा पूरी करने के लिये चांडाल उस बाग में गया। गुप्त रूप से आम्रवृक्ष के पास जाकर मन्त्र पढ़कर उसे झुकाया और आम तोड़ लिये। दूसरे मंत्र से उसे जैसा का तैसा कर दिया। बाद में वह घर आया और अपनी स्त्री यत्ना की इच्छापूर्ति के लिये निरंतर वह चांडाल विद्या के बल से वहाँ से आम लाने लगा। एक दिन फिरते-फिरते माली की दृष्टि आम्रवृक्ष की जैसे विवेक धर्म का मूल तत्त्व है, वैसे ही यत्ना धर्म का ओर गयी। आमों की चोरी हुई देखकर उसने जाकर श्रेणिक राजा के उपतत्त्व है। विवेक से धर्मतत्त्व को ग्रहण किया जाता है और यत्ना सामने नम्रतापूर्वक कहा। श्रेणिक की आज्ञा से अभयकुमार नाम के से वह तत्त्व शुद्ध रखा जा सकता है, उसके अनुसार आचरण किया बुद्धिशाली मत्री ने युक्ति से उस चांडाल को खोज निकाला। चांडाल जा सकता है। पाँच समितिरूप यत्ना तो बहुत श्रेष्ठ हैं; परंतु को अपने सामने बुलाकर पूछा, "इतने सारे मनुष्य बाग में रहते हैं, फिर भी तू किस तरह चढ़कर आम ले गया कि यह बात किसी के गृहस्थाश्रमी से वह सर्व भाव से पाली नहीं जा सकती, फिर भी । भाँपने में भी न आयी? सो कह।" चांडाल ने कहा, "आप मेरा जितने भावांश में पाली जा सके उतने भावांश में भी असावधानी से। अपराध क्षमा करें। मैं सच कह देता हूँ कि मेरे पास एक विद्या है, वे पाल नहीं सकते। जिनेश्वर भगवान द्वारा बोधित स्थूल और सूक्ष्म उसके प्रभाव से मैं उन आमों को ले सका।" अभयकुमार ने कहा, दया के प्रति जहाँ बेपरवाही है वहाँ बहत दोष से पाली जा सकती “मुझसे तो क्षमा नहीं दी जा सकती, परन्तु महाराजा श्रेणिक को तू है। इसका कारण यत्ना की न्यूनता है। उतावली और वेगभरी चाल, यह विद्या दे तो उन्हें ऐसी विद्या लेने की अभिलाषा होने से तेरे उपकार पानी छानकर उसकी जीवानी रखने की अपूर्ण विधि, काष्ठादि ईंधन के बदले में मैं अपराध क्षमा करा सकता हूँ।" चांडाल ने वैसा करना स्वीकार किया। फिर अभयकुमार ने चांडाल को जहाँ श्रेणिक राजा का बिना झाडे, बिना देखे उपयोग, अनाज में रहे हुए सूक्ष्म जन्तुओं सिंहासन पर बैठा था वहाँ लाकर सामने खड़ा रखा; और सारी बात की अपूर्ण देखभाल, पोंछे-माँजे बिना रहने दिए हुए बरतन, अस्वच्छ राजा को कह सुनायी। इस बात को राजा ने स्वीकार किया। फिर रखे हुए कमरे, आँगन में पानी का गिराना, जूठन का रख छोड़ना, चांडाल सामने खड़े रहकर थरथराते पैरों से श्रेणिक को उस विद्या का पटरे के बिना खूब गरम थाली का नीचे रखना, इनसे अपने को बोध देने लगा; परंतु वह बोध लगा नहीं। तुरन्त खड़े होकर अस्वच्छता, असुविधा, अनारोग्य इत्यादि फल मिलते हैं; और ये अभयकुमार बोले, “महाराज! आपको यदि यह विद्या अवश्य सीखनी महापाप के कारण भी हो जाते हैं। इसलिये कहने का आशय यह हो तो सामने आकर खड़े रहें, और इसे सिंहासन दें।" राजा ने विद्या लेने के लिये वैसा किया तो तत्काल विद्या सिद्ध हो गयी। है कि चलने में, बैठने में, उठने में, जीमने में और दूसरी प्रत्येक यह बात केवल बोध लेने के लिये हैं। एक चांडाल की भी क्रिया में यत्ना का उपयोग करना चाहिए। इससे द्रव्य एवं भाव दोनों विनय किये बिना श्रेणिक जैसे राजा को विद्या सिद्ध न हई, तो इसमें प्रकार से लाभ हैं। चाल धीमी और गंभीर रखनी, घर स्वच्छ रखना, से यह तत्त्व ग्रहण करना है कि, सद्विद्या को सिद्ध करने के लिये पानी विधिसहित छनवाना, काष्ठादि ईधन झाड़कर डालना, ये कुछ विनय करनी चाहिये। आत्मविद्या पाने के लिये यदि हम निथ गुरु हमारे लिये असविधाजनक कार्य नहीं हैं और इनमें विशेष वक्त भी की विनय करें तो कैसे मंगलदायक हो! नहीं जाता। ऐसे नियम दाखिल कर देने के बाद पालने मुश्किल नहीं विनय यह उत्तम वशीकरण है। भगवान ने उत्तराध्ययन में विनय हैं। इनसे बिचारे असंख्यात निरपराधी जन्तु बचते हैं। को धर्म का मूल कहकर वर्णित किया है। गुरु की, मुनि की, विद्वान की, माता-पिता की और अपने से बड़ों की विनय करनी यह अपनी प्रत्येक कार्य यत्नापूर्वक ही करना यह विवेकी श्रावक का उत्तमता का कारण है। कर्तव्य है। शिक्षा-एक यशस्वी दशक विद्यालय खण्ड/६५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012030
Book TitleJain Vidyalay Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhupraj Jain
PublisherJain Vidyalaya Calcutta
Publication Year2002
Total Pages326
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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