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बहप
शिक्षक की अद्भुत दृष्टि थी। वह कहता था, 'सर्वत्र जयमन्विच्छेत् आज भी अगर भारतवर्ष बड़ा होगा तो इन्हीं आकाशधर्मी गुरुओं के पुत्रात् शिष्यात् पराजयम्।' मनुष्य को सर्वत्र विजय की कामना द्वारा होगा जो अपने शिष्यों से मतभेद की चिन्ता किए बिना उनको करनी चाहिए लेकिन मेरा पुत्र मुझको हरा दे, मेरा विद्यार्थी मुझको सही रास्ते बताते हुए उनकी प्रवृत्ति के अनुसार उनके विकास की हरा दे, यह कामना भी भारत का शिक्षक करता था। अगर मेरा सुविधा देते रहेंगे। शिष्यों की क्षमता के अनुसार उनके विकास की विद्यार्थी मुझको पराजित करेगा तो कैसे पराजित करेगा? ज्ञान की दिशा बताने वाला आकाशधर्मी गुरु हमारा आदर्श होना चाहिए। सीमा को जहाँ तक मैने बढ़ाया है जब उससे आगे वह बढ़ा के ले हम अध्यापकगण यदि आकाशधर्मी गुरु के रूप में जीवन जियें, जायेगा, तब मेरी बात में वह कहीं खोट निकालेगा और उसको दूर तब हम अपने शिष्यों को भी अपनी भूमिका पर ला सकेंगे। हमारे करेगा, जब मुझसे भी ज्यादा वह ज्ञानी हो जाएगा तब न मुझे कबीर दासजी ने कहा है, पारस में और गुरु में बहुत अन्तर होता पराजित करेगा? अगर कोई शिष्य किसी गुरु को अपने ज्ञान से है। 'पारस पत्थर लोहे को सोना बना सकता है लेकिन गुरु, पराजित करता है तो गुरु की छाती फूल जाती है। हमारे आदर्श गुरु आकाशधर्मी गुरु, शिष्य को भी आकाशधर्मी गुरु बना सकता है।' की चेष्टा होती थी कि हमारे शिष्य हमसे भी योग्य बन जाएँ, यह गुरु की वास्तविक सफलता शिष्य की श्रद्धा अर्जित करने में है। नहीं कि हम अपने शिष्यों को दबाते रहें।
एक बढ़िया श्लोक है : ___हमारे देश में कहा गया है कि दो प्रकार के गुरु होते हैं। एक
बहवः गुरवः सन्ति शिष्यवित्तापहारकः । प्रकार का गुरु होता है आकाशधर्मी गुरु और दूसरे प्रकार का गुरु
दुर्लभ: स गुरुलोक शिष्यचित्तापहारकः ।। होता है शिलाधर्मी गुरु। शिलाधर्मी गुरु कैसा होता है? आप लोगों ऐसे तो गुरु बहुत हैं जो शिष्यों के वित्त का, अर्थ का अपहरण ने मैदानों में देखा होगा कि हरी घास के ऊपर अगर कोई एक ईंट कर लेते हैं। आजकल हम लोग फीस लेते ही हैं, प्राय: हर विद्यार्थी रख दे, एक शिला रख दे और एक महीने के बाद उस ईंट को को फीस देनी पड़ती है तो वित्त का अपहरण करने वाली शिक्षा हटाये तो दिखेगा कि ईंट से दबी घास पीली पड़ गई, निस्तेज हो गई, संस्थाएँ और गुरु बहुत हैं। 'दुर्लभ: स गुरुकि शिष्यचित्तापहारकः', विकलांग हो गई। जो गुरु शिलाधर्मी गुरु के रूप में अपने विद्यार्थियों किन्तु वैसा गुरु दुर्लभ है इस लोक में जो शिष्य के चित्त का पर लद जाए और कहे कि मैं जो कहता हूँ वही तुमको मानना अपहरण कर सके, जो शिष्य की श्रद्धा अर्जित कर सके। शिष्य पड़ेगा, वही सत्य है, तो वह अपने विद्यार्थियों का विकास नहीं कर श्रद्धेय के रूप में किसी गुरु को क्या केवल इसलिए स्वीकार कर सकता। शिलाधर्मी गुरु हमारे यहाँ त्याज्य, हमारे यहाँ निन्द्य माना लेगा कि वह अध्यापक है, वह प्रोफेसर है। ऐसा नहीं होता। केवल जाता है। हमारे यहाँ जिस गुरु की आदर्श कल्पना की गई है उस पद से सम्मान प्राप्त नहीं होता। शिक्षक में कुछ वैशिष्ट्य होना गुरु की संज्ञा आकाशधर्मी है। आकाशधर्मी गुरु कैसा होता है? चाहिए, जिससे शिष्य के मन में श्रद्धा उत्पन्न हो और वह वैशिष्ट्य आकार चाहता है कि उसके नीचे जो वनस्पतियाँ हैं वे विकसित जब तक हमारा शिक्षक वर्ग अजित करता रहेगा तब तक हमारे हों, जिनकी जितनी क्षमता हो वह उतनी विकसित हों। घास को विद्यार्थी आगे बढ़ते रहेंगे। उगने की क्षमता प्रायः सतह तक है और देवदारु की उगने की हमको इस बात पर भी विचार करना चाहिए कि अध्यापक के क्षमता बहुत ऊँची है, बरगद बहुत फैल सकता है। आकाशधर्मी गुरु समान ही शिष्य का क्या स्वरूपभूत लक्षण होना चाहिए। शिष्य कैसे प्रत्येक शिष्य को प्रकाश देता है, प्रत्येक शिष्य को वायु देता है, ज्ञान प्राप्त करे, इसके बारे में गीता में दो बहुत अच्छी उक्तियाँ कही प्रत्येक शिष्य को अवकाश देता है बढ़ने का ताकि जिसकी जितनी गईं हैं : क्षमता है वह उतनी विकसित भूमिका को अर्जित कर सके। यह
तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया । आकाशधर्मी गुरु का लक्षण है। आकाशधर्मी गुरु शिष्य की क्षमता शिष्य का आधारभूत लक्षण है ज्ञान प्राप्त करने के लिए अग्रणी को पहचानता है। जैसे चिकित्सा रोग की नहीं हो जाती, चिकित्सा होना। शिष्य ज्ञान प्राप्त कर सके, इसके लिए उनको परिप्रश्न करने रोगी की की जाती है, वैसे विद्या विद्या के लिए नहीं दी जाती विद्या का अधिकार मिलना चाहिए। परिप्रश्न माने बार-बार प्रश्न, परिप्रश्न व्यक्ति को दी जाती है। उस व्यक्ति की जो क्षमता है, उस व्यक्ति माने चारों तरफ से प्रश्न, परिप्रश्न माने जब तक विषय समझ में के जो विशेष गुण हैं, उन विशेष गुणों को कैसे विकसित किया न आए तब तक प्रश्न करने का अधिकार शिष्यों का है, इसकी जाए, यह कुशलता जिस गुरु में होती है उसको आकाशधर्मी गुरु स्वीकृति लेकिन परिप्रश्न को सम्पुटित किया गया है, प्रणिपात यानी कहते हैं। आकाशधर्मी गुरुओं के द्वारा भारतवर्ष बड़ा हुआ है और विनम्रतापूर्वक नमस्कार और सेवा के द्वारा। विद्यार्थी अध्यापक से
शिक्षा-एक यशस्वी दशक
विद्वत खण्ड/२५
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