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________________ प्रश्न करने के अधिकारी हैं, अगर सचमुच उस विषय को वे जानने, क्रिया। श्रवणम् का मतलब हुआ कि अपनी जिज्ञासा को लेकर, समझने की इच्छा रखते हैं, किन्तु उस विषय का ज्ञान प्राप्त करने अपने प्रश्न को लेकर किसी योग्य अधिकारी गुरु के पास गये उनसे के लिए उन्हें विनम्र होना चाहिए। इस सन्दर्भ में एक अच्छी उक्ति : विनम्रतापूर्वक प्रश्न किया और उन्होंने जो उत्तर दिया, जो उन्होंने पैये असीस लचैसे जो सीस, समझाया, उसको सुना। श्रवणम् का मतलब हुआ जानने की, ज्ञान लची रहिये तब ऊँची कहैये। अर्जित करने की चेष्टा। आज हमारे मन में शुश्रुषा हो तो हम जब तक विद्यार्थी का सिर श्रद्धा से झुकता नहीं है गुरु के इनसाइकलोपीडिया से समझ सकते हैं, हम इन्टरनेट से समझ सकते सामने, तब तक वह विद्या अजित नहीं कर सकता। साथ ही हमें हैं लेकिन आधारभूत बात यह है कि जानने की इच्छा होनी चाहिए निश्छल सेवा के द्वारा गुरु को प्रसन्न भी करना चाहिए। इस प्रकार और जानने की इच्छा के बाद जानने की क्रिया होनी चाहिए। सेवा और प्रणिपात के द्वारा हम अनेकानेक प्रश्न करने का अधिकार श्रवणम् माने जानने की क्रिया। जानने के लिए अध्यापक के पास प्राप्त कर सकते हैं। एक और बात है, एक उक्ति बहुत बार उद्धृत गए, आपने अपने अध्यापक से सवाल किया, उनका बताया हुआ की जाती है 'श्रद्धावान् लभते ज्ञानम्', श्रद्धावान को ज्ञान प्राप्त होता उत्तर सुना, लेकिन समझ में नहीं आया तो मतलब हुआ कि बुद्धि है लेकिन इतनी ही बात आधी बात है। पूरी उक्ति है गीता की : मन्द है। बुद्धि की तीसरी भूमिका है ग्रहणम्। जो कुछ आपको श्रद्धावान् लभते ज्ञानं तत्पर: संयतोन्द्रयः । बताया गया वह आपकी समझ में आना चाहिए। वह आपको समझ उस व्यक्ति को ज्ञान प्राप्त होता है जो अपने गुरु एवं विषय में आया कि नहीं, अगर समझ में आया तो आप बुद्धि की तीसरी के प्रति श्रद्धा तो रखता ही है साथ ही उसको अर्जित करने के लिए भूमिका पर हैं और समझ में नहीं आया तो आपकी बुद्धि मंद है। तत्पर है, जुटा हुआ है, उसी के प्रति समर्पित है। दूसरी ओर उसका बुद्धि की चौथी भूमिका है धारणम्। आपने किसी विद्वान का ध्यान ही नहीं जाता। दूसरी ओर उसका ध्यान जाए इसके लिए व्याख्यान सुना, घर में आकर कहा, आज का व्याख्यान बहुत उसको संयतेन्द्रिय होना चाहिए, अपनी इन्द्रियों पर संयम करना। अच्छा था, वाह-वाह, वाह-वाह कितना अच्छा व्याख्यान था आज चाहिए। अपनी इन्द्रियों पर संयम करके जब हम अपना पूरा ध्यान का। किसी ने पूछा क्या कहा गया था व्याख्यान में, उत्तर दिया, भाई, अपने अध्येतव्य विषय की ओर लगायेंगे तब हम श्रद्धा के द्वारा ज्ञान यह तो याद नहीं, तो यह बुद्धि की मन्दता है। बुद्धि की चौथी भूमिका अर्जित कर सकेंगे। विद्यार्थियों के लिए एक बहुत अच्छा श्लोक है, धारणम् अर्थात् जो हमने सुना जिसको हमने समझा उसको हमने याज्ञवल्क्यीय शिक्षा का। उसका अभिप्राय यह है कि हम अपनी धारण किया कि नहीं किया। अगर हमको वह याद नहीं है तो हमारी भूमिका को सतत नापते रहें कि हम कहाँ खड़े हैं। विद्या-बुद्धि की बुद्धि मन्द है। हमको बुद्धि की चौथी भूमिका पर जाना चाहिए कि कौन-सी भूमिका है जिस पर अभी हम खड़े हैं और जिससे अग्रसर हम पढ़ें उसको स्मरण रख सकें, धारण कर सकें। होना चाहते हैं, उच्चतर भूमिका पर जाना चाहते हैं। यह अद्भुत ऊहापोहार्थविज्ञानाम्। 'गंगा गए गंगादास, यमुना गए यमुनादास' ऐसा श्लोक है : नहीं होना चाहिए। इन्होंने कहा यह भी सही, उन्होंने कहा वह भी । शुश्रुषा श्रवणं चैव ग्रहणं धारणं तथा । सही, ऐसा नहीं होना चाहिए। जो विषय सुना है, जो विषय समझा ऊहापोहाविज्ञानं तत्वज्ञानं च धी गुणाः ।। है या जो विषय पढ़ा है उसके ऊपर ऊहापोह किया कि नहीं, विचार धी माने बुद्धि। बुद्धि के सात गुण हैं अर्थात् बुद्धि की सात किया कि नहीं, वह सही है तो क्यों सही है, वह गलत है तो क्यों भूमिकाएँ हैं। हम सब विचार करें कि हम किस भूमिका पर खड़े गलत है। यह जो सही और गलत के बारे में विश्लेषण करना, हैं। बुद्धि की पहली भूमिका है शुश्रुषा। शुश्रुषा माने श्रोतुमिच्छा। वितर्क करना, विवेचन करना है यह बुद्धि की पाँचवीं भूमिका है। श्रोतुमिच्छा माने जानने की इच्छा, सुनने की इच्छा। पुराकाल का यह अन्ध श्रद्धा की बात भारतीय दृष्टि में नहीं है। ऊहापोह करना चाहिए, श्लोक है। पुराकाल में तो छपी हुई किताबें होती नहीं थीं, विचार करना चाहिए और विचार करने के बाद जो सही लगे उसे हस्तलिखित ग्रन्थ होते थे उनकी संख्या भी बहुत कम थी। इसलिए स्वीकार करना चाहिए, जो गलत लगे उसे छोड़ देना चाहिए और गुरु के निकट जाकर पूछा जाता था। कोई बात जानने की इच्छा हुई जो कुछ सीखा है उस सीखे हुए को काम में लाना चाहिए। तो उसे कहते थे शुश्रुषा। सुनने की, जानने की इच्छा। यदि इच्छा 'अर्थविज्ञानम्' यह बुद्धि की छठी भूमिका है। जो भी हमने सीखा के स्तर पर ही रुक गई तो समझिए कि बुद्धि बहुत मंद है। शुश्रुषा है, जो हमने ज्ञान प्राप्त किया है वह अगर काम में नहीं आया तो श्रवणं चैव। बुद्धि की दूसरी भूमिका है जानने की चेष्टा, जानने की किस काम का! मीमांसा का सूत्र है, 'सर्वमपि ज्ञानं कर्मपरम्' अर्थात् विद्वत खण्ड/२६ शिक्षा-एक यशस्वी दशक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012030
Book TitleJain Vidyalay Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhupraj Jain
PublisherJain Vidyalaya Calcutta
Publication Year2002
Total Pages326
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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