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________________ है वह एक पल का भी विलम्ब किये बिना अपने जन्म और मरण विषय में सन्देह) का परिज्ञान हो जाता है, उसे संसार के स्वरूप का की मुक्ति के लिए प्रयास प्रारंभ कर ही देगा। महावीर कहते हैं कि परिज्ञान हो जाता है। जो संशय को नहीं जानता, वह संसार को भी कुशल व्यक्ति को प्रमाद से क्या प्रयोजन? ३५ वे कहते हैं कि उठो नहीं जानता।४५ इसलिए सूत्रकार कहते हैं कि (समता में स्थित) और प्रमाद न करो।३६ यही समता आचारांग सूत्र में भावशीत और साधक (समतादर्शी) संसारवृक्ष के बीज रूप कर्मो (कर्मबन्धों) के भावउष्ण, इन दोनों को समभावपूर्वक सहन करने का उपदेश किया विभिन्न कारणों को जानकर उनका परित्याग करें और कर्मों से है। कहा है कि- अमुनि (अज्ञानी) सदा सोये हुए हैं, तथा मुनि सर्वथा मुक्त (अवधूत) बनें।४६ । (ज्ञानी) सदैव जागते हैं।३७ समता में स्थित साधक के लिए सूत्रकार आचारांग की समता अन्त में विमोक्ष का निरूपण करती है। कहते हैं कि समस्त प्राणियों की गति और अगति को भलीभाँति 'विमोक्ष' का अर्थ परित्याग करना, अलग हो जाना है और विमोह जानकर जो दोनों अन्तों (राग और द्वेष) से दूर रहता है, वह समस्त का अर्थ है- मोह रहित हो जाना। तात्विक दृष्टि से अर्थ में कोई लोक में कहीं भी छेदा नहीं जाता, भेदा नहीं जाता, जलाया नहीं अन्तर नहीं है। बेड़ी आदि किसी बन्धन रूप द्रव्य से छूट जाना जाता और मारा नहीं जाता।३८ 'द्रव्य विमोक्ष' है और आत्मा को बन्धन में डालने वाले कषायों समता की साधना सत्य की साधना है। सत्य में समुत्थान करने अथवा आत्मा के साथ लगे कर्मों के बन्धन रूप संयोग से मुक्त हो के लिए कहा है कि- हे पुरुष! तू सत्य को ही भलिभाँति समझ। जाना 'भाव-विमोक्ष' है।४७ इसे हम द्रव्य समता और भाव समता सत्य की आज्ञा (मर्यादा) में उपस्थित रहने वाला वह मेघावी मार की संज्ञा दे सकते हैं। (मृत्यु, संसार) को तर जाता है।३९ वह सत्यार्थी साधक क्रोध, समता का लेखा-जोखा हमें भ० महावीर के जीवन की मान, माया और लोभ को शीघ्र ही त्याग देता है। समता में स्थित घटनाओं से प्राप्त होता है, जो कि आचारांग सूत्र के 'उपधान-श्रुत' साधक के लिए कहते हैं कि जो एक (आत्मा) को जानता है, वह नामक अध्ययन में वर्णित है। सूत्रकार ने लाढ़देश की उत्तम सब को जानता है और जो सबको (संसार) जानता है, वह एक तितिक्षा-साधना का वर्णन करते हुए कहा है कि 'दुर्गम लाढ़देश' के आत्मा को जानता है।४° महावीर कहते हैं कि समताधारी साधक वज्रभूमि और थुभ्रभूमि नामक प्रदेश में भ० महावीर ने विचरण लोकेंषणा में न भटके।४१ जिस साधक में यह लोकेषणा बुद्धि नहीं किया था। वहाँ उन्होंने बहुत ही तुच्छ (उबड़-खाबड़) वासस्थानों व है, उसके अन्य प्रवृत्ति अर्थात् सावद्यारम्भ-हिंसा नहीं होगी। अथवा कठिन आसनों का सेवन किया था।४८ लाढ़देश के क्षेत्र में भगवान जिसमें सम्यक्त्व ज्ञाति नहीं है या अहिंसा बुद्धि नहीं है, उसमें दूसरी ने अनेक उपसर्ग सहे, वहाँ के बहुत से अनार्य लोग भगवान पर डंडों विवेक बुद्धि नहीं होगी। हिंसा में रचे-पचे और उसी में लीन रहने आदि से प्रहार करते थे। उस देश के लोग ही प्राय: रूखे थे, अत: वाले मनुष्य बार-बार जन्म धारण करते रहते हैं। मोक्ष मार्ग में प्रयत्न भोजन भी प्राय: रूखा-सूखा ही मिलता था। वहाँ के शिकारी कुत्ते करने वाले, सतत प्रज्ञावान-धीर साधक से कहा गया है कि उन्हें उन पर टूट पड़ते और काट खाते थे।४९ कुत्ते काटने लगते या देख जो प्रमत्त हैं, धर्म से बाहर हैं। तू अप्रमत्त होकर सदा अहिंसादि भौंकते तो बहुत थोड़े से लोग उन काटते हुए कुत्ते को रोकते, रूप धर्म में पराक्रम कर।४२ नियुक्तिकार ने लोक के सार के अधिकांश लोग तो इस श्रमण को कुत्ते काटें, इस नियत से कुत्तों को सम्बन्ध में प्रश्न उठाकर समाधान किया है कि- लोक का सार धर्म बुलाते और छुछकार कर उनके पीछे लगा देते थे।५° उस समय है, धर्म का सार ज्ञान है, ज्ञान का सार संयम है तथा संयम (समता) अणगार भ० महावीर प्राणियों के प्रति मन, वचन और काया से होने का सार मोक्ष है।४३ समता में अस्थित लोगों की दृष्टि में धन, काम, वाले दण्ड का परित्याग और अपने शरीर के प्रति ममत्व का भोग-साधन, शरीर, जीवन, भौतिक उपलब्धियाँ आदि सारभूत मानी व्युत्सर्ग करके समता में विचरण करते थे। भगवान उन ग्राम्यजनों जाती हैं, किन्तु आध्यात्मिक दृष्टि में अर्थात् समता में रमण करने के कांटों के समान तीखे वचनों को निर्जरा का हेतु समझकर सहन वाले के लिए ये सब पदार्थ सारहीन हैं, क्षणिक हैं, नाशवान हैं, करते थे।५१ उस लाढ़देश में बहुत से लोग डण्डे से या मुक्के से आत्मा को पराधीन बनाने वाले हैं और अन्ततः दुखदायी हैं। समता अथवा भालों आदि शस्त्र से या फिर मिट्टी के ढेले या खप्पर से की दृष्टि में मोक्ष (परम पद) परमात्मपद आत्मा (शुद्ध, निर्मल, मारते और 'मारो-मारो' कहकर होहल्ला मचाते।५२ उन अनार्यों ने ज्ञानादि स्वरूप)। मोक्ष प्राप्ति के साधन- धर्म, ज्ञान, दर्शन, चारित्र, पहले एक बार ध्यानस्थ खड़े भगवान के शरीर को पकड़ कर माँस तप एवं संयम आदि सारभूत हैं।४४ संसार स्वरूप का परिज्ञान काट लिया था। उन्हें (प्रतिकूल) परीषहों से पीड़ित करते थे फिर कराते हुए सूत्रकार कहते हैं कि जिसे संशय (मोक्ष और संसार के भी भगवान समता में स्थिर रहते।५३ कुछ दुष्ट लोग ध्यानस्थ भगवान शिक्षा-एक यशस्वी दशक विद्वत खण्ड/६१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012030
Book TitleJain Vidyalay Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhupraj Jain
PublisherJain Vidyalaya Calcutta
Publication Year2002
Total Pages326
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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