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________________ ० रामपुकार शर्मा कहा गया है। अत: श्री नर्मदाजी को 'मेकाल-कन्या' भी कहा जाता है। किम्वदन्ती है कि जब नर्मदा अपनी पूर्ण लावण्यावस्था पर पहुँची, तब उनका विवाह सोणभद्र (सोन) से होना निश्चित हुआ, परन्तु दुर्भाग्यवश नाई कुमारी जिस पर नर्मदा की रूप-सज्जा की जिम्मेवारी सौंपी गई थी, वह स्वयं नर्मदा का रूप धारण कर विवाहमण्डप में जा बैठी। झूठ के पैर नहीं होते हैं, फलस्वरूप बात खुल गई। इधर नर्मदा विवाह-हेतु बुलावा न आने के कारण पश्चिम की ओर मुड़कर खड़ी हो गयी। यह खबर पाकर कपिल मुनि ने नर्मदा को मनाना चाहा, परन्तु क्रोधातुर मानिनी पल भर भी न ठहरी और तेज कदमों से पश्चिमगामी हो गई। उधर सोणभद्र यह सब जानकर अत्यन्त दु:खी हुए और बिन ब्याहे पूर्व की ओर चल पड़े। फलत: आज तक नर्मदा चिर कुमारी और सोणभद्र भी चिर कुमार रहे। इसी भाँति एक नहीं कई लोक-कथाएँ नर्मदा सोन से जुड़ी हुई हैं। नर्मदा और सोन की उद्गम के अतिरिक्त और कई छोटी-छोटी जलधाराओं का भी उद्गम-स्थल है 'अमरकंटक'। सभी किसी न किसी जलकुण्ड के मुख से ही आगे बढ़ी, चली हैं। जहाँ नर्मदा का उद्गम-स्थल है, वहाँ एक जलकुण्ड बना दिया गया है। इस अमरकंटक : परिदर्शन जलकुण्ड के चतुर्दिक विख्यात श्री माँ नर्मदा मंदिर स्थापित है। धर्म और निसर्ग का समन्वय तथा परिष्कृत-भाव से परिपूर्ण जलकुण्ड में स्नान कर उसकी चतुर्दिक परिक्रमा कर नर्मदा मइया 'अमरकंटक' एक अद्भुत एवं सुरम्यपूर्ण स्थान है- तीर्थ यात्रियों, की अर्चना की जाती है। ऐसा माना जाता है कि ई० नवमी शताब्दी पर्यटकों तथा साधारण यात्रियों से परिपूर्ण। फिर भी सब कुछ खुला- में रेवा के महाराज गुलाबसिंह ने नर्मदा मंदिर का निर्माण करवाया खला। चारों ओर उन्मुक्त वातावरण में भटकते जलद-खण्डों का था और उस काल के निर्मित कई अन्य मंदिर भी इसके चारों ओर ही साम्राज्य है। जनसमागम होने पर भी अमरकंटक शान्ति का खड़े हैं। सभी मंदिरों का निर्माण लगभग एक ही स्थापत्य कला का पर्याय है। पेड़-पौधों की घनी छाया एवं दूर-दूर तक बिखरी हुई नमूना है। परन्तु नर्मदा से सोनमुण्डा के रास्ते में एक नये ढंग का पहाड़ियों का झुण्ड वैदिककालीन तपस्वियों की स्थिति का आभास मंदिर बनाया जा रहा है। पूछने पर पता चला कि उसी स्थान का कराते हैं और उन पर खड़े लम्बे-लम्बे शाल के वृक्ष एक पैर पर कोई तांत्रिक सम्प्रदाय उसे बनवा रहा है, जिसका सिंह-द्वार अद्भुत खडे तपस्यारत वैदिक तपस्वियों की परम्परा को उद्घोषित करते है. जिस पर चारों तरफ त्रिपुरेश्वरी के चार भव्य मुख निर्मित हैं। प्रतीत होते हैं। हमारा देश भारतवर्ष प्राचीनकाल से ही नदियों का यह दक्षिण भारतीय स्थापत्य कला (मदुराई कला) से अत्यधिक देश रहा है, इसलिए नहीं कि देश में नदियों की अधिकता है बल्कि प्रभावित है। इसलिए कि इस देश में नदियों का विशेष सम्मान हुआ है। वे हमारे नर्मदा मइया के मंदिर के सामने ही काले-पत्थर का बना हुआ जीवन में बहुत अधिक महत्व रखती हैं। उनसे हमारा आर्थिक, एक छोटा-सा हाथी, जिसे बादल का हाथी कहा जाता है और उस सामाजिक, आध्यात्मिक जीवन समृद्ध हुआ है। पर भग्न सवार 'बादल' भी मौजूद है। ठीक इसके पास ही बाँयीं नर्मदा नदी का उद्गम ही 'अमरकंटक' की प्रसिद्धि का कारण । ओर भग्नावस्था में एक घोड़ा और उस पर सवार भी है, जिसे रुदल है। एक ही पर्वत के भिन्न-भिन्न छोरों से उत्पन्न हुआ है एक नदी और उसका घोड़ा कहा जाता है। बादल के हाथी के चारों पैरों के और एक नद। प्रचलित कथाओं के आधार पर श्री माँ नर्मदाजी सभी मध्य लगभग सवा वर्गफुट जगह है। धरती पर साष्टांग होकर यदि नदियों में श्रेष्ठ हैं क्योंकि वे साक्षात् देवाधिदेव भगवान महादेव के कोई व्यक्ति उससे पार हो जाता है तो यह प्रमाणित होता है कि शरीर से उत्पन्न हई हैं तथा स्थावर और जंगम सभी प्राणियों की उसने कोई पाप नहीं किया है. परन्तु इसके विपरीत जो उसमें उद्धारक हैं। श्री अमरकंटक को प्राचीनकाल में मेकाल पर्वत भी अटका रह जायेगा वह पापी कहलाएगा। यह कथा प्रचलित है, विद्यालय खण्ड/२६ शिक्षा-एक यशस्वी दशक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012030
Book TitleJain Vidyalay Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhupraj Jain
PublisherJain Vidyalaya Calcutta
Publication Year2002
Total Pages326
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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