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________________ असुर कभी भी अपने उद्देश्य में सफल नहीं हो पाये हैं। अतः इस संसार में हमेशा 'सत्यमेव जयते' की परम्परा रही है। आधुनिक काल में भी अभी-अभी इस 'धरा' पर उथलपुथल का माहौल उपस्थित हो गया है । सम्पूर्ण सभ्य समाज अस्तित्व को बचाने और कायम रखने में कठिनाई अनुभव कर रहा है। ऐसा प्रतीत हो रहा है कि सभ्यता समाप्ति की ओर है अथवा शब्दकोष का एक 'शब्द- मात्र' बनकर रह गया है। शायद नहीं। यदि ऐसी बात होती तो इतने व्यापक रूप से आतंकवाद का विरोध नहीं होता। हालांकि विरोध का स्वर धीमा और स्वार्थपूर्ण रहा है अर्थात् विरोध अन्तर्मन से नहीं हो रहा है वास्तव में यदि विश्व समुदाय के सभी सभ्य लोगों के विरोध का स्वर एक हो जाय तो एक बार फिर संसार 'आतंकमुक्त' हो जाय अथवा आतंकमुक्त संसार की कल्पना साकार हो जाय। लोगों में एक नया विश्वास जागृत हो सकता है। भय और दहशत का माहौल सदा-सदा के लिए समाप्त हो सकता है। इस धरती पर एक बार फिर स्वर्गिक वातावरण उपस्थित हो सकता है। देवगण एक बार फिर पृथ्वी पर जन्म लेने को लालायित हो सकते हैं। इस वसुन्धरा पर पुनः सूर्योदय और सूर्यास्त के समय पक्षियों का कलरव सुनाई दे सकता है। एक बार फिर ब्रजवासियों को सायंकालीन गोधूलि बेला का दृश्यावलोकन हो सकता है। हिमालय एक बार फिर देवालय और शिवालय का स्थल बन सकता है। हिमाच्छादित पर्वत पर प्रातः कालीन स्वर्णिम दृश्य के अवलोकनार्थ पुनः जनमानव का सैलाब उमड़ सकता है। कश्मीर की हरीतिमा और केशर की खुशबू एक बार फिर इन वादियों की ओर सैलानियों को आकर्षित करने में सक्षम हो सकती है। अनुपम वादियों के बीच डलझील का तरण ताल पुनः आकर्षण का केन्द्र बन सकता है। कितना अच्छा होता कि संसार के सभी मानव अपने निजी स्वार्थ, जाति, धर्म के सीमांकन से ऊपर उठकर मानवता के विकास एवं प्रकृति की इस अनुपम सृष्टि का सदुपयोग करने में तल्लीन होते । कभी-कभी ऐसा आभास होता है कि प्रकृति द्वारा हमें मानव जीवन शायद इसी सत्कार्य के लिए ही मिला है। लेकिन दुर्भावनाओं से प्रसित व्यक्ति है इस अनमोल जीवन का सम्भवतः दुरुपयोग कर रहे हैं, अर्थात् भयाक्रान्त होकर पाशविक जीवन यापन कर रहे हैं। क्या इस जीवन का उद्देश्य यही है कि सभी एक-दूसरे से सहृदयता पूर्वक बात भी नहीं कर सकें, एक-दूसरे से मिलते हुए भी अपनी पहचान स्पष्ट नहीं करें अर्थात् अपनी ही मानव जाति से भयाक्रान्त हों व्यक्ति अपने भावनात्मक उद्वेग को विचलित करते रहें या शिक्षा एक यशस्वी दशक Jain Education International अपनी मनःस्थिति को झूठी सान्त्वना देते हुए अपने-पराये में उलझ हुए अपने बहुमूल्य जीवन को समाप्त कर लें ? शायद नहीं क्योंकि आज हमारे वैज्ञानिकों ने मानव सभ्यता को गुफाओं से निकालकर जीवन जीने की विचाधारा को बदल दिया है। मानव सिर्फ धरातल पर ही नहीं बल्कि अंतरिक्ष और चन्द्रमा तक का सफर कर चुका है । इस प्रकार विवेकशील समाज ने सृष्टि की सुन्दरता में चार चाँद लगाए हैं और इस दिशा में अभी भी प्रयत्नशील है। I इन दिनों मानव अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति क्षणमात्र में ही कर सकता है। इतने अधिक संसाधन शायद कल्पित स्वर्ग में भी उपलब्ध नहीं हो सकते, अर्थात् मानव की सारी कल्पनाएँ साकार होती जा रही है लेकिन कहीं न कहीं इन्हीं वैज्ञानिकों की देन है कि आज हम भयाक्रान्त और त्रस्त भी हैं। विवेकशील मानव इन वैज्ञानिक उपलब्धियों का सदुपयोग कर मानवता के विकास एवं सत्कार्य से जुड़े हैं, वहीं विवेकशून्य मानव इन संसाधनों का दुरुपयोग कर इस सृष्टि को विनाश का रूप दे रहे हैं। वास्तव में मानवता यही है कि लोग समरसता का भाव अपनाएँ एवं अपने-पराये का फर्क भूलकर सर्वत्र खुशियों का सा वातावरण उपस्थित कर 'सरगम' स्थापित करें, तभी 'अपार' और 'अभाव' का भेद मिट सकता है। धर्म और मजहब की दीवार को तोड़कर प्रेम और भाई-चारा स्थापित हो, शायद यही मानवजीवन की सार्थकता है इसीलिए कहा गया है कि "मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना" इस प्रकार यह स्पष्ट होता है कि 'विवेकपूर्ण कार्य ही मानवता का पर्याय है' अर्थात् जो स्वार्थलिप्सा से ऊपर उठकर परोपकार एवं सत्कार्य के लिए हमेशा तत्पर रहे सच्चे अर्थ में वही मानव है। ऐसा प्रतीत होता है कि आतंकवाद से जुड़े लोग हमेशा अमानवीय कार्य करते हैं अर्थात् वे लोग मानव कहलाने के अधिकारी भी नहीं रह जाते हैं। 'युद्ध' कभी भी शांति का विकल्प नहीं बन सका अर्थात् शांति के प्रसार के लिए प्रेम और सद्भावना का मार्ग ही श्रेष्ठतर है जिसे अपनाना होगा । परम शांति के लिए 'आतंकवाद' नहीं अध्यात्म की आवश्यकता है। अतः प्रकृति, धरती और संस्कृति की रक्षा करना ही मानवता तथा मानव जीवन का उद्देश्य है। सहशिक्षक, श्री जैन विद्यालय, हावड़ा For Private & Personal Use Only विद्यालय खण्ड / २५ www.jainelibrary.org
SR No.012030
Book TitleJain Vidyalay Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhupraj Jain
PublisherJain Vidyalaya Calcutta
Publication Year2002
Total Pages326
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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