SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 134
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ परन्तु यह देखकर आश्चर्चचकित रह गया कि एक स्वस्थ मोटी होकर आगे बढ़ती है, जो काफी सुहावनी लगती है। इसी स्थान पर महिला अनायास ही उससे होकर निकल गई, मानो वह कोई गुल्म- एक जलकुण्ड बन गया है, जो बहुत ही रमणीय है। अगल-बगल लता हो, जबकि कई दुर्बल व्यक्ति अपना सिर ही घुसा पाये और का क्षेत्र गहन गम्भीर वनों का है, इसमें सर्वाधिक शाल वृक्ष ही हैं। या तो अटक कर या साहस खोकर वापस उसी रास्ते निकल आये। नर्मदा मंदिर से पूर्व-दक्षिण के कोने में एक मील की दूरी पर 'अमरकंटक' के पश्चिमी भाग में नर्मदा कल-कल प्रवाह के स्थित है, सोनमुण्डा। यहाँ जाने के लिए एक पक्की सड़क है। साथ लगभग ६ कि०मी० की दूरी पर एक प्रपात बनाती है, जिसे सड़क पहाड़ी है। शाल, शीशम, महुआ तथा आम वृक्षों के सघन कपिलधारा कहा जाता है। ऐसा माना जाता है कि इसी स्थान पर जंगल से होकर जाती है। सोननद का उद्गम यहीं के पाँच पेड़ों के कलिपमुनिजी ने नर्मदा को रोकना चाहा था। नर्मदा तो आजतक मूल से हुआ माना जाता है। वहीं पर ईंटों का एक छोटा-सा हौज किसी भी बाधा या बन्धन को मानने के लिए बिल्कुल ही तैयार नहीं बना हुआ है जिसमें सोनजल इकट्ठा होकर फिर कल-कल निनाद है। नर्मदा मंदिर से कपिल-धारा तक एक पक्की सड़क जाती है। से पत्थरों पर से होता हुआ आगे बढ़ता है। थोड़ी ही दूर आगे जाकर कई स्थानों पर सड़क और राहगीरों के साथ-साथ नर्मदा कल-कल, वह लघु जलधारा लगभग ३५० फुट नीचे गिर कर एक विशाल छल-छल करती हुई पत्थरों पर चढ़ती-उतरती अपने रूप में प्रपात बनाती है। जलधारा में जल की न्यूनता अथवा बाहुल्यता पर मदमाती चल रही होती है। जल धारा और सड़क के दोनों ओर दूर- इस प्रपात का आकार निर्मित होता है, परन्तु इस स्थान से दूर तक दूर तक पहाड़ियों और घाटियों में फैली हरियाली दिखाई पड़ती है। फैली पर्वत मालाएँ और घने हरे-भरे वन से आच्छादित धरती की शाल-कौल आदि के वृक्ष प्रहरियों की भाँति उन्नत सिर किए पंक्ति- सुरम्य छटा देखते ही बनती है। सायंकाल तो यहाँ की छवि निराली बद्ध खड़े हैं। अगल-बगल के छोटे-छोटे पौधे हवा के मंद झोकों से हो जाती है। 'निराला' के शब्दों में कहें तो :हिल-हिल कर छोटे-छोटे बच्चों की भाँति तालियाँ बजाते हुए सौन्दर्य-गर्वित सरिता के अतिविस्तृत वक्षःस्थल मेंप्रसन्नतापूर्वक हमारा स्वागत कर रहे दिखते हैं। धूप की तेजस्विता धीर वीर गम्भीर शिखर पर हिमगिरि-अटल अचल मेंइन लघु तृण-गुल्मों की वात्सल्यता से कुछ कम हो जाती है मानों उत्ताल तरंगाघात प्रलय-घन गर्जन जलधि प्रबल मेंवे इनके सम्मुख पराजित हो गये हों। क्षिति में - जल में - नभ में - अनिल-अनल मेंनर्मदा शिलाखण्डों पर से सरकती हुई अचानक १५० फुट का सिर्फ एक अव्यक्त शब्द-सा 'चुप, चुप, चुप,' प्रपात बहाती हुई नीचे के शिलाखण्डों पर जा गिरती है और अजीब- है गूंज रहा सब कहीं- । सी विजय हर्ष ध्वनि करती है; परन्तु ग्रीष्मकाल के दिनों में आस-पास शाल और आम के घने वृक्षों पर लँगूरों (हनुमान) का जलराशि की कमी के कारण इससे झर-झर कर धारा गिरती है। ही राज्य है। अत: कुछ फल या खाद्य-पदार्थ आदि लेकर आगे बढ़ना वर्षाकाल में इस प्रपात का सौन्दर्य फूलकर द्विगुणित ही नहीं कई बड़ा ही दुष्कर हो जाता है, वे जबरदस्ती छीन कर ले जाते हैं। ये गुणा अधिक हो जाता है। शिलाखण्डों से टकराकर जलराशि के वन्य-प्राणी इस सुनसान वन्य-प्रान्त को सजीवता प्रदान करते हैं। फुहारे सूर्य-किरणों को सतरंगी बना देते हैं। इस गिरती जलधारा के नर्मदा मंदिर से पूर्व की ओर लगभग एक मील की दूरी पर 'माइ नीचे थके यात्रीगण स्नान कर माता नर्मदा से आशीर्वाद प्राप्त कर की बगिया' नामक स्थान है। यहीं से नर्मदा मंदिर में श्री नर्मदा माँ पर थकान मिटाते नजर आते हैं। इस प्रपात के ऊपरी भाग की अपेक्षा चढ़ाने के लिए फूल आया करते हैं। 'बगिया' का प्राकृतिक दृश्य निचली गहरी छाती काफी रमणीय है। दूर-दूर तक फैले छोटे-बड़े अद्भुत एवं मनोहर है। इसी 'माइ की बगिया' की परिक्रमा कर कुछ शिलाखण्ड और उसके इर्द-गिर्द छोटी-छोटी कुटियाँ हैं, जिनमें तो लौकिक जगत में लौट आते हैं और कुछ अलौकिकता की खोज में साधुगण या योगीजन रहते हैं और साथ में विविध रंग के पक्षी और संसारिकता का त्याग कर आगे बढ़ जाते हैं। यहाँ की भीगी मिट्टी में एक बन्दर ही इस प्रशान्त वनस्थली की सजीवता को बनाए हुए हैं। विशेष प्रकार का पौधा पाया जाता है, जिसके पत्ते बड़े-बड़े होते हैं। वृक्ष कपिलधारा से पश्चिम की ओर लगभग एक फर्लाग की दूरी पर ३ से ४' ऊँचे दिखते हैं। एक अन्य प्रकार का तृण या गुल्म जिसे एक छोटी-सी गुफा है। यहीं पर नर्मदा तीन पतली धाराओं में बँट स्थानीय भाषा में 'गुलबकावली' कहा जाता है। इसके फूल से अर्क जाती है। कुछ दूर तक प्रवाहित होने के पश्चात् पुनः वह एकाकार निकाल कर एक साधु प्रवृति व्यक्ति आँखों का इलाज करता है। कहा होकर लगभग २० फुट का प्रपात बनाती हुई पुन: नीचे की ओर जाता है कि दूर-दूर से आँखों के रोगी यहाँ आते हैं और अपने चक्षु की गिरती है। इस छोटे प्रपात का नाम दूधधारा है। जलधारा फिर चौड़ी सफल चिकित्सा प्राप्त कर संतुष्ट हो जाते हैं। शिक्षा-एक यशस्वी दशक विद्यालय खण्ड/२७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012030
Book TitleJain Vidyalay Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhupraj Jain
PublisherJain Vidyalaya Calcutta
Publication Year2002
Total Pages326
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy