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'अमरकंटक' से लगभग ६ कि०मी० उत्तर की ओर शहडोल जाने वाली सड़क के दाहिनी ओर श्री ज्वालेश्वर महादेव नामक स्थान स्थित है। यही जुरिला (ज्वाला) नामक एक छोटी नदी का उद्गम स्थल है । यहीं भगवान ज्वालेश्वर महादेवजी का मंदिर है। मार्कण्डेय पुराण के अनुसार, "जो व्यक्ति ज्वालेश्वर महादेव पर जलाभिषेक करता है, वह जन्म-मृत्यु के बन्धन से मुक्त हो जाता है।"
श्री ज्वालेश्वर मंदिर से दक्षिण की ओर ढाई मील की दूरी पर स्थित है- 'भृगुकमण्डल' यहाँ तक का मार्ग सघन जंगल के मध्य से होकर जाता है। इसे भृगु ऋषि की साधना स्थली के रूप में जाना जाता है । भृगु ऋषि ने भगवान विष्णु के वक्षस्थल पर पाद- प्रहार के उपरान्त अशान्त मन को शान्त करने के लिए इस निर्जन स्थल को चुना था। चिन्ह के रूप में उन्होंने अपना कमण्डल यहीं छोड़ दिया। बारहों महीने इस पत्थर के कमण्डल से अमृत-जल गिरता रहता है।
नर्मदा मंदिर के पश्चिम में लगभग १० कि०मी० की दूरी पर स्थित है- 'कबीर चौरा' या 'कबीर चबूतरा' यहाँ जाने के लिए एक पक्की सड़क जंगल-पहाड़ों से होकर जाती है। फलतः मार्ग काफी चित्ताकर्षक है। बीच-बीच में पर्यटक या वन विभाग की ओर से सड़क के किनारे लगा हुआ बोर्ड "पहले जानवरों को पार होने दें, फिर वाहन बढ़ाएँ हम शहरी लोगों के लिए काफी कौतूहल का विषय रहा और सचमुच एक स्थान पर लंगूरों (हनुमान) की टोली सड़क पार कर रही थी, सरकारी बस चालक ने बस को बीच सड़क में ही रोक दिया बड़ा ही आनन्ददायक दृश्य था । लंगूरों का सरदार पहले पार होकर एक ऊंचे शिलाखण्ड पर बैठकर अन्य साथियों को सड़क पार करता देखता रहा और जब सभी सड़क पार कर गये, तब वह भी उनके पीछे होता हुआ जंगल में गायब हो गया। अपूर्व अनुशासन, कर्तव्यनिष्ठा और सतर्कता का उदाहरण दृष्टिगत हुआ। काश, लोग इन जानवरों से कुछ सीख पाते।
इन सघन जंगलों से होकर कबीरचौरा पहुँचा जाता है। कबीर पंथियों का मानना है कि सन्त कबीरदास इसी चबूतरे पर बैठकर अपने शिष्यों को उपदेश दिया करते थे। यहाँ पर भी वही 'गुलबकावली' के पौधे और अगल-बगल कई छोटे-छोटे जलकुण्ड और आश्रम-कुटी दिखाई दिये । गम्भीर नीरवता का राज था परन्तु हृदय में कबीर की निर्गुणी 'साखी' 'सबद' 'रमैनी' गूँज उठती हैएक डाल पर पंछी रे बैठा,
कौन गुरु कौन चेला,
तू उड़ जा हंस अकेला..... /
मध्य 'अमरकंटक' में नागरिक निवास के अतिरिक्त पुलिसथाना बस स्टैण्ड, यात्रियों के लिए होटल, ट्यूरिज्म हाउस, बैंक,
विद्यालय खण्ड / २८
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टेलीफोन केन्द्र, अतिथिशाला, बाजार आदि सबकुछ हैं। यहीं एक बड़ा खुला मैदान है, जिसमें मकर संक्रान्ति, शिवरात्रि, वैशाखीपूर्णिमा आदि समयों पर काफी बड़ा मेला लगता है। जिसमें स्थानीय निर्मित वस्तुओं की अधिकता रहती है, परन्तु बाहरी पर्यटकों की अधिकता इनमें शहरीपन का भाव पैदा कर देते हैं। बाकी समय सर्वत्र शान्त वातावरण। उसी मैदान के दक्षिणांत में नर्मदा की जलधारा को रोक कर एक जलाशय का रूप दे दिया गया है। जिसमें कई पैडेल बोट अक्सर दिन-भर पर्यटकों को लेकर जल पर तैरते रहते हैं उस जल में आकाश के तैरते बादल कुछ समय के लिए तैरते नजर आते हैं। इस जलाशय के एक ओर असंख्य सफेद-सफेद बगुले दूर से सफेद खिले कमल का भ्रम पैदा करते हैं। कभी-कभी ये सफेद बगुले पैडल बोट पर आकर बैठकर यात्रियों का 'अमरकंटक में स्वागत करते हुए प्रतीत होते हैं।
'अमरकंटक' की सन्ध्याकालीन प्राकृतिक छटा निराली है। पर्वत श्रेष्ठ 'अमरकंटक' परम् सुन्दर पुष्प लताओं से परिपूर्ण है। यहाँ के गगनचुम्बी विशालकाय वृक्ष सभी ऋतुओं में हरे-भरे रहते हैं। यहाँ पर अधिकांश धार्मिक सम्प्रदायों के मंदिर, पूजा-स्थल, मठ या फिर आश्रम हैं। जिनमें मार्कण्डेय आश्रम, गायत्री शक्ति पीठ, कल्याण आश्रम, रामकृष्ण कुटीर, गुरुद्वारा, श्री राम-कृष्ण विवेकानन्द सेवाश्रम आदि विशेष प्रमुख हैं। संध्याकाल में यहाँ की सम्पूर्ण दिशाएँ घण्टे शंखनाद, आरती, भजन-कीर्तन आदि की मधुर ध्वनि से गूंज उठती है।
और यहाँ की चाँदनी रात, अपने-आप में एक सुखद अनुभव का आभास देती है। ऐसा लगता है मानो पृथ्वी मण्डल को किसी ने दुग्ध-स्नान करा दिया हो या उस पर किसी ने श्वेत चादर बिछा दी हो। चारों ओर निस्तब्धता छाई हुई, पेड़-पौधे चुपचाप खड़े किसी चित्रकार के अनुपम चित्रकारी की शोभा प्रदान करते हैं। पवन प्रवाहित होने से उस छवि की छटा द्विगुणित हो जाती है। वृक्षों के झूमने से प्रकाश निर्मित बेल-बूटे इधर-उधर हिलने लगते हैं और नेत्रों को बड़े ही सुहावने लगने लगते हैं मानो कि प्रकृति पटल पर चलचित्र प्रदर्शित किये जा रहे हों।
ऐसे प्राकृतिक सौन्दर्य-सम्पदा से परिपूर्ण क्षेत्र से वापसी या प्राकृति-सौन्दर्य से विछोह अत्यन्त ही कष्टदायक लगता है और मन में स्वत: ही गूँज उठता है
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नर्मदायै नमः प्रातः नर्मदायै नमो निशि । नमस्ते नर्मद देवी प्राहिमाम् भवसागरत् ।
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सहशिक्षक, श्री जैन विद्यालय, छवड़ा
शिक्षा - एक यशस्वी दशक
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