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________________ प्रश्न छोटा हो या मोटा, सरल हो या कठिन, इस लोक सम्बन्धी उत्तर - हाँ, गौतम! लाघव यावत् अप्रतिबद्धता श्रमण निर्गन्थों हो या परलोक सम्बन्धी, वर्तमान-कालीन हो या भूत-भविष्यकाल से के लिये प्रशस्त/श्रेयस्कर है। सम्बन्धित, दूसरे से सम्बन्धित हो या स्वयं से सम्बन्धित, एक-एक प्रश्न - क्या कांक्षा प्रदोष क्षीण होने पर श्रमण- निर्गन्थ अन्तकर के सम्बन्ध में भगवान् के श्रीमुख से समाधान प्राप्त करने में ही अथवा चरम शरीरी होता है? अथवा पूर्वावस्था में अधिक मोहग्रस्त गौतम आनन्द का अनुभव करते थे। होकर विहरण करे और फिर संवृत्त होकर मृत्यु प्राप्त करे तो वस्तुत: इन प्रश्नों के पीछे एक रहस्य भी छिपा हुआ है। ज्ञानी तत्पश्चात् वह सिद्ध, बुद्ध, मुक्त होता है, यावत् सब दुःखों का गौतम को प्रश्न करने या समाधान प्राप्त करने की तनिक भी अन्त करता हैं? आवश्यकता नहीं थी। वे तो प्रश्न इसलिये करते थे कि इस प्रकार की उत्तर - हाँ, गौतम! कांक्षा-प्रदोष नष्ट हो जाने पर श्रमण-निर्ग्रन्थ जिज्ञासाएँ अनेकों मानस में होती हैं किन्तु प्रत्येक श्रोता प्रश्न पूछ भी यावत् सब दुःखों का अन्त करता है। (भगवती सूत्र १ शतक, ९ । नहीं पाता या प्रश्न करने का उसमें सामर्थ्य नहीं होता। इसीलिए गौतम उद्देशक, सूत्र - १७, १९) अपने माध्यम से श्रोतागणों के मन:स्थित शंकाओं का समाधान करने आगमों में गौतम से सम्बन्धित अंश के लिए ही प्रश्नोत्तरों की परिपाटी चलाते थे, ऐसी मेरी मान्यता है। आगम-साहित्य में गणधर गौतम से सम्बन्धित प्रसंग भी बहुलता विद्यमान आगमों में चन्द्रप्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति, जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति से प्राप्त होते हैं, उनमें से कतिपय संस्मरणीय प्रसंग यहां प्रस्तुत हैं। आदि की रचना तो गौतम के प्रश्नों पर ही आधारित है। विशालकाय आनन्द श्रावक : पंचम अंग व्याख्या-प्रज्ञप्ति (प्रसिद्ध नाम भगवती सूत्र) जिसमें प्रभु महावीर के तीर्थ के गणाधिपति एवं सहस्राधिक शिष्यों के ३६००० प्रश्न संकलित हैं उनमें से कुछ प्रश्नों को छोड़कर शेष गुरू होते हुए भी गणधर गौतम गोचरी/भिक्षा के लिये स्वयं जाते थे। सारे प्रश्न गौतम-कृत ही हैं। एक समय का प्रसंग है :गौतम के प्रश्न, चर्चा एवं संवादों का विवरण इतना विस्तृत है प्रभु वाणिज्य ग्राम पधारे। तीसरे प्रहर में भगवान् की आज्ञा लेकर कि उसका वर्गीकरण करना भी सरल नहीं है। भगवती, औपपातिक, गौतम भिक्षा के लिये निकले और गवेषणा करते हुए गाथापति आनन्द विपाक, राज-प्रश्नीय, प्रज्ञापना आदि में विविध विषयक इतने प्रश्न श्रावक के घर पहुँचे। आनन्द श्रावक भगवान् महावीर का प्रथम श्रावक हैं कि इनके वर्गीकरण के साथ विस्तृत सूची बनाई जाय तो कई था। उपासक के बारह व्रतों का पालन करते हुए ग्यारह प्रतिमाएँ भी भागों में कई शोध-प्रबन्ध तैयार हो सकते है। वहन की थीं। जीवन के अन्तिम समय में उसने आजीवन अनशन सामान्यतया गौतम-कृत प्रश्नों को चार विभागों में बांट सकते हैं:- ग्रहण कर रखा था। उस स्थिति में गौतम उनसे मिलने गए। आनन्द १. अध्यात्म, २. कर्मफल, ३. लोक और ४. स्फुट। ने श्रद्धा-भक्ति पूर्वक नमन किया और पूछा - प्रभो! क्या गृहवास में प्रथम अध्यात्म-विभाग में इन प्रश्नों को ले सकते हैं - आत्मा, रहते हुए गृहस्थ को अवधिज्ञान उत्पन्न हो सकता है? स्थिति, शाश्वत-अशाश्वत, जीव, कर्म, कषाय, लेश्या, ज्ञान, गौतम - हो सकता है। ज्ञानफल, संसार, मोक्ष, सिद्ध आदि। इनमें केशी श्रमण और उदक- आनन्द - भगवन्! मुझे भी अवधिज्ञान हुआ है। मैं पूर्व, पश्चिम, पेढ़ाल के संवाद भी सम्मिलित कर सकते हैं। दक्षिण दिशाओं में पांच सौ-पांच सौ योजन तक लवण समुद्र का । दूसरे विभाग में किसी को सुखी, किसी को दु:खी, किसी को क्षेत्र, उत्तर में हिमवान पर्वत, ऊर्ध्व दिशा में सौधर्म कल्प और अधो समृद्धि-सम्पन्न और किसी निपट निर्धन को देखकर उसके शुभाशुभ दिशा में प्रथम नरक भूमि तक का क्षेत्र देखता हूँ। कर्मों को जानकारी आदि ग्रहण कर सकते हैं। गौतम - गृहस्थ को अवधिज्ञान उत्पन्न हो सकता है, किन्तु तीसरे विभाग में लोकस्थिति, परमाणु, देव, नारक, षट्काय, इतना विशाल नहीं। तुम्हारा कथन भ्रान्तियुक्त एवं असत्य है। अतः जीव, अजीव, भाषा, शरीर आदि और सौरमण्डल के गति विषयक असत्भाषण प्रवृत्ति की आलोचना/प्रायश्चित्त करो। आदि ले सकते हैं। आनन्द-भगवन्! क्या सत्य कथन करने पर प्रायश्चित्त ग्रहण चौथे विभाग में स्फुट प्रश्नों का समावेश कर सकते हैं। करना पड़ता है? उदाहरण के तौर पर सामान्य से दो प्रश्नोत्तर प्रस्तुत हैं :- गौतम - नहीं। प्रश्न - भगवन्! क्या लाघव, अल्प इच्छा, अमूर्छा, आनन्द - तो, भगवन! सत्य-भाषण पर आलोचना का निर्देश ' अनासक्ति और अप्रतिबद्धता, ये श्रमण-निर्गन्थों के लिये प्रशस्त हैं? करने वाले आप ही प्रायश्चित करें। विद्वत खण्ड/११८ शिक्षा-एक यशस्वी दशक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012030
Book TitleJain Vidyalay Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhupraj Jain
PublisherJain Vidyalaya Calcutta
Publication Year2002
Total Pages326
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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