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________________ 0 लक्ष्मीशंकर मिश्र अमृत-अन्वेषण व निर्माण कार्य प्रारम्भ हो गया। अनुसंधान कार्य के समस्त प्रबंध को राज्य ने सुव्यवस्थित कर दिया। तत्कालीन अनेक राजवैद्यों, रसायन शास्त्रियों, आयुर्वेदज्ञों व अन्वेषकों ने आचार्य नागार्जुन को समझाया कि "आप अपने इस प्रण को विस्मृत कर दें और इस अन्वेषण कार्य को रोक दें। मृत्यु लोक में अमृत का निर्माण हो ही नहीं सकता। यह व्यर्थ का उन्माद है। इस व्यर्थ के कार्यभार से स्वयं को मुक्त कर जो सम्भाव्य नरकल्याण हेत अनुसंधान है, उसमें लगें। मृगतृष्णा के पीछे दौड़ना सिर्फ थकना ही होता है।' तत्कालीन अनेक राजाओं ने राजा चिरायु को भी चेताया कि "राज्य कोष का आप दुरुपयोग न करें और एक उन्मादी, प्रतापी, पागल व पुत्र शोक से अर्धविक्षिप्त राजवैद्य की मिथ्या कल्पना की उड़ान में प्रजा के गाढ़े पैसों को यूं न बहायें। मृत्यु लोक में अमृत उत्पन्न हो ही नहीं सकता, यह आप निश्चित समझें। क्योंकि अपने विवेक को एक कल्पनाजीवी राजवैद्य के पास गिरवी रखकर आप मूर्ख बन रहे हैं?" किन्तु अनुसंधान कार्य शुरू हुआ और चलता रहा। कोई चेतावनी, बाधा या परेशानी न आचार्य नागार्जुन को डिगा सकी और अमरता का भार न किसी व्यवधान व बहकावे से राजा चिरायु ही विचलित हुए। कोई आचार्य नागार्जुन चिरायु नामक राजा के मंत्री, मित्र, राजवैद्य, नौ वर्ष के गहन अन्वेषण व कठिन श्रम के बाद आचार्य नागार्जुन एक आयुर्वेदज्ञ, रसायन शास्त्र और विख्यात अनुसंधानकर्ता थे। उनका ऐसे रस की खोज व निर्माण करने में सफल हो गये, जो किसी भी एक पुत्र था। अचानक एक दिन वह बीमार पड़ा और कुछ ही दिनों जीव को न केवल चिरायु, बल्कि अमर तक करने में सफल सिद्ध में अपने पिता के उपचार के बावजूद उसकी मृत्यु हो गयी। नागार्जुन होता। इसके लिए किसी भी जीवित प्राणी को एक-एक वर्ष के बहुत दुखी हुए और सोचने लगे कि अपने उपचार से कितनों को अन्तराल पर लगातार तीन वर्ष तक इस रस का केवल एक-एक बार मैंने बचाया, किन्तु एक साधारण रोग से अपने पुत्र को न बचा सका सेवन करना पड़ता। यह रस जब अनुभूत व परीक्षित हुआ तथा प्रयोग और अंतत: वह धरती से उठ गया। मेरा समस्त आयुर्वेद, रसायन में सफल उतरा, तो राजा चिरायु को सूचना दी गयी। इस सुसंवाद को शास्त्र, अनुसंधान, जड़ी बूटी, पद, सत्ता की निकटता, नाम, यश सुनकर राजा चिरायु ने आचार्य को छाती से लगा लिया और इसके आदि सभी व्यर्थ हैं। दुख के भार को ढ़ोते-ढोते व चिन्तन करते अगले ही दिन प्रात:काल राजा चिरायु को आचार्य नागार्जुन ने अपने करते उन्होंने मृत्यु पर विजय पाने का संकल्प लिया और अमृत हाथ से इस अद्भुत रस की पहली खुराक का पान कराया। निर्माण करने की ठानी। दिन बीतते गये। कालांतर में राजा चिरायु ने अपने पुत्र को उनके इस संकल्प और धरती पर अमृत निर्माण के प्रण का युवराज बना दिया। युवराज प्रसन्नता से अपनी पत्नी के पास पहुँचा समाचार सुनकर राजा चिरायु बड़ा आनन्दित हुआ। राजा ने अपने और बोला, “प्रिये एक शुभ समाचार है। पिताजी ने मुझे युवराज मित्र के घर जाकर उनका उत्साहवर्धन किया और बोला कि इस घोषित किया है।" अन्वेषण में जो भी व्यय भार आयेगा, जो परेशानी होगी, जो प्रबंध पति के भोलेपन पर पत्नी हंस पड़ी। बोली, "प्रिय, तुम बहुत होगा, उन सबका दायित्व राज्य की ओर से उठा लिया जायेगा। र भोले हो। क्या तुम सोचते हो कि युवराज बनने के बाद तुम कभी राजा की कृपा से विह्वल होकर नागार्जुन ने तत्क्षण वहीं घोषणा की सिंहासन पर बैठ पाओगे। ऐसा कभी नहीं हो सकेगा।" कि मेरे द्वारा जो अमृत की खोज की जायेगी, उसके प्रथम "क्या?" उपयोगकर्ता राजा चिरायु ही होंगे और मेरे द्वारा निर्मित अमृत की "इसलिए कि तुम्हारे पिता, आचार्य नागार्जुन द्वारा निर्मित रस पहली धार का पान मेरे मित्र नृप चिरायु ही करेंगे। का पान कर अमर होने वाले हैं। वे इस रस की दो खुराक पी भी शिक्षा-एक यशस्वी दशक विद्यालय खण्ड/६९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012030
Book TitleJain Vidyalay Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhupraj Jain
PublisherJain Vidyalaya Calcutta
Publication Year2002
Total Pages326
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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