SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 194
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आपको मालूम है कि हमारा ईश्वर कहां रहता है? वह क्या उससे ही वह अन्तर का चैतन्य जाग उठेगा? केवल कहीं आकाश के किसी वैकुण्ठ में नहीं बैठा है, बल्कि वह बाह्य साधना को पकड़ कर चलने से तो सिर्फ बाहर और आपके मन के सिंहासन पर बैठा है, हृदय मन्दिर में बाहर ही घूमते रहना होता है, अन्दर में पहुँचने का मार्ग एक विराजमान है वह। जब बाहर की आँख मूंदकर अन्तर में दूसरा है और उसे अवश्य टटोलना चाहिए। आन्तरिक देखेंगे, तो उसकी ज्योति जगमगाती हुई पाएँगे, ईश्वर को साधना के मार्ग से ही अन्तर के चैतन्य को जगाया जा विराजमान हुआ देखेंगे। सकता है। उसके लिए आन्तरिक तप और साधना की ईश्वर और मनुष्य अलग-अलग नहीं हैं। आत्मा और जरूरत है। हृदय में कभी राग की मोहक लहरें उठती हैं, तो परमात्मा सर्वथा भिन्न दो तत्त्व नहीं हैं। नर और नारायण दो कभी द्वेष की ज्वाला दहक उठती है। वासना और विकार भिन्न शक्तियाँ नहीं हैं। जन और जिन में कोई अन्तर नहीं के आँधी-तूफान भी आते हैं। इन सब दून्द्रों को शान्त करना है, कोई बहुत बड़ा भेद नहीं है। आध्यात्मिक दर्शन की भाषा हो अन्तर की साधना है। आँधी और तूफान से अन्तर का में कहा जाए, तो सोया हुआ ईश्वर जीव है, संसारी प्राणी महासागर क्षुब्ध न हो, समभाव की जो लौ जल रही है, वह है, और जागृत जीव ईश्वर है, परमात्मा है। मोहमाया की बुझने नहीं पाए, बस यही चैतन्य देव को जगाने की साधना निद्रा में मनुष्य जब तक अन्धा हो रहा हो, वह जन है, और है। यही हमारा समत्व योग है। समता आत्मा की मूल स्थिति जब जन की अनादि काल से समागत मोह-तन्द्रा टूट गई, है, वास्तविक रूप है। जब यह वास्तविक रूप जग जाता है, जन प्रबुद्ध हो उठा, तो वही जिन बन गया। जीव और जिन तो जन में जिनत्व प्रकट हो जाता है। नर से नारायण बनते में, और क्या अन्तर है? जो कर्म-लिप्त दशा में अशुद्ध जीव फिर क्या देर लगती है? इसलिए अन्तर की साधना का है, कर्म-मुक्त दशा में वही शुद्ध जीव जिन है। मतलब हुआ समता की साधना। राग-द्वेष की विजय का _ 'कर्मबद्धो भवेज्जीव: कर्ममुक्तस्तथा जिन:' अभियान! __ बाहर में बिन्दु की सीमाएँ हैं, एक छोटा-सा दायरा है। क्या कर्म ने बाँध रखा है? पर, अन्तर में वही विराट सिन्धु है, उसमें अनन्त सागर साधकों के मुंह से बहुधा एक बात सुनने में आती है कि हिलोरें मार रहा है, उसकी कोई सीमा नहीं, कोई किनारा हम क्या करें? कर्मों ने इतना जकड़ रखा है कि उनसे नहीं। एक आचार्य ने कहा है - छुटकारा नहीं हो पा रहा है! इसका अर्थ है कि कर्मो ने बेचारे "दिक्कालाधनवच्छिन्नाऽनन्त-चिन्मात्रमूर्तये। साधक को बाँध रखा है। किन्तु प्रश्न यह है कि क्या कर्म स्वानुभूत्येकमानाय, नम: शान्ताय तेजसे!" कोई रस्सी है, साँकल है, जिसने आपको बाँध लिया है? यह जब तक हमारी दृष्टि देश-काल की क्षुद्र सीमाओं में बँधी प्रश्न गहराई से विचार करने का है कि कर्मों ने आपको बाँध हुई है, तब तक वह अनन्त सत्य के दर्शन नहीं कर पाती रखा है या आपने कर्मों को बाँध रखा है? यदि कर्मो ने और जब वह देश-काल की सीमाओं को तोड़ देती है, तो आपको बाँध रखा है, तो फिर आपकी दासता का निर्णय उसे अन्दर में अनन्त, अखण्ड, देशातीत एवं कालातीत कर्मों के हाथ में होगा और तब मुक्ति की बात तो छोड़ ही चैतन्य ज्योति के दर्शन होते हैं। एक दिव्य, शान्त, तेज का देना चाहिए। ऐसी स्थिति में जप, तप और आत्मशुद्धि की विराट् पुंज परिलक्षित हो जाता है। आत्मा की अनन्त अन्य क्रियाएँ सब निरर्थक हैं। जब सत्ता कर्मों के हाथ में शक्तियाँ प्रकाशमान हो जाती हैं। हर साधक उसी शान्त सौंप दी है, तो उनके ही भरीसे रहना चाहिए। कोई प्रयत्न तैजस रूप को देखना चाहता है, प्रकट करना चाहता है। करने की क्या आवश्यकता है? वे जब तक चाहेंगे, आपको साधक के लिए वही नमस्करणीय उपास्य है। बाँधे रखेंगे और जब मुक्त करना चाहेंगे, आपको मुक्त कर चैतन्य कैसे जगे? देंगे। आप उनके गुलाम हैं। आप का स्वतन्त्र कर्तृत्व कुछ हमें इस बात पर भी विचार करना है कि जिस विराट् अर्थ नहीं रखता। किन्तु, जब यह माना जाता है कि आपने चेतना को हम जगाने की बात कहते हैं, उस जागरण की कर्मों को बाँध रखा है, तो बात कुछ और तरह से विचारने प्रक्रिया क्या है? उस साधना का विशुद्ध मार्ग क्या है? हमारे की हो जाती है। इस से यह तो सिद्ध हो जाता है कि कर्म जो ये क्रियाकाण्ड चल रहे हैं, बाह्य तपस्याएँ चल रही हैं, की ताकत से आपकी ताकत ज्यादा है। बँधने वाला गुलाम शिक्षा-एक यशस्वी दशक विद्वत् खण्ड/१५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012030
Book TitleJain Vidyalay Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhupraj Jain
PublisherJain Vidyalaya Calcutta
Publication Year2002
Total Pages326
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy