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________________ O विशालप्रसाद जायसवाल, एकादश ब गुरु का महत्व गुरुर्ब्रह्मा, गुरुर्विष्णु, गुरुदेवो महेश्वरः । गुरु साक्षात् परब्रह्म, तस्मै श्रीगुरवे नमः ।। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। वह समाज में ही जन्म लेता है, बढ़ता है और अन्त में समाज में रहकर मृत्यु को प्राप्त होता है। लेकिन इस जन्म और मृत्यु के बीच जो जीवन है उसे सुखमय बनाने के लिए ज्ञान का होना अति आवश्यक है और वह ज्ञान हम अपने गुरुजनों से ही प्राप्त करते हैं। शिष्य की सफलता में प्रथम स्थान गुरुदेव तथा गुरुमाता का होता है। सदियों पहले जब हमारे पूर्वज आश्रम में शिक्षा प्राप्त करने जाते थे, उन्हें गुरुदेव तथा गुरुमाता से जो दिव्य ज्ञान प्राप्त होता था, वे उन्हीं के सहारे जीवन की जटिल से जटिल समस्याओं को सुलझा देते थे। गुरु अपने शिष्यों को उच्च से उच्च कोटि की शिक्षा प्रदान करते थे। वे सभी नैतिक, व्यावहारिक तथा आध्यात्मिक शिक्षा प्रदान करते थे जिससे उनका जीवन धन्य हो जाता था। शिष्य अपने माता-पिता तथा गुरु की आज्ञाओं का पालन करने में अपने प्राणों को भी दाव पर लगा देते थे। _ 'गुरु बिनु होइ न ज्ञाना' का विश्वास भारतीयों की अपनी विशेषता है। गोस्वामी तुलसीदास ने गुरु के सम्बन्ध में कहा है "बँदउँ-गुरु - पद कंज, कृपा सिन्धु नर रूप हरि।" तब और आज में कितना अन्तर हो गया है। आज तो कलियुग की छाया सभी को ग्रस रही है। माया के प्रभाव में सभी मोहित होते जा रहे हैं। इससे तो कोई सच्चा मार्गदर्शक ही बचा सकता है। गुरु से बड़ा मार्गदर्शक कौन हो सकता है? बुराई की ओर बढ़ते हुए कदम को गुरु के सिवा और कौन रोक सकता है? मलिक मुहम्मद जायसी कहते हैं बिनु गुरु जगत को निरगुन पावा।' आज तो ऐसा हो गया है कि हम क्रोध में अपने गुरुजनों का भी अपमान कर देते हैं। हम अपने आप पर नियंत्रण नहीं रख पाते हैं। कभी-कभी तो मूर्खतावश अपने आप को गुरु से भी बड़ा ज्ञानी समझने लगते हैं और फलस्वरूप पतन की ओर बढ़ते चले जाते हैं। हमें गुरु निन्दा नहीं सुननी चाहिए पर हम भूल से गुरु की निंदा ही कर बैठते हैं। हमारे पूर्वजों तथा हमारे गुरुओं ने हमारे लिये जो नियम बनाये हैं हमें उसी के अन्तर्गत रहकर कार्य करना चाहिए। किसी कवि ने कहा है "गुरु की निन्दा सुनहि जे काना, हो पातक गौ घात समाना।" गुरु अपने शिष्य की गलतियों को सुधारते हैं। वे हमें अपने पुत्र के समान ही स्नेह प्रदान करते हैं और हर स्थिति से अवगत कराते हैं। कभी-कभी हम इतने नीचे गिर जाते हैं कि जिसका ध्यान ही नहीं रहता। उस समय गुरु हमारे मार्गदर्शक बनकर आते हैं और हर तरह से हमारे सुधार की कोशिश करते हैं। उन्हीं के प्रयास से हमारा जीवन सुखमय होता है। ईश्वर की अपेक्षा गुरु को प्रथम पद दिया गया है। कबीरदासजी भी गुरु को प्रथम पूज्य मानते हैं "गुरु गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागू पाँय बलिहारी गुरु आपकी, गोविन्द दियो बताय।" विधाता द्वारा रचित इस सुन्दर सृष्टि में मानव सबसे सुन्दर कृति है। विधाता ने उसके लिए कुछ विशेष गुणों की रचना की है। जिसे हम अपने गुरु से प्राप्त कर उसका सदुपयोग करना सीखते हैं। उसके ये गुण मानवतत्व या मनुष्यता कहलाते हैं। मनुष्य का सबसे बड़ा धर्म जीव मात्र के प्रति प्रेम है। वस्तुत: गुरु ही ईश्वर तत्व का दूसरा रूप है जो हमारे सभी दुर्गुणों को सँवारते हैं और हमें हर समस्या से लड़ने का मार्ग दिखलाते हैं। अगर गुरु न हो तो अज्ञानान्धकार में हम खो जाएँ। जब मनुष्य में अहंकार बढ़ता है और वह खुद को अपने जीवन का मूल निर्देशक मान लेता है तब भी ईश्वर गुरुजनों के माध्यम से हमें सुधारने की चेष्टा करते हैं। अत: हमें अपने गुरुजनों का आदर करना चाहिए क्योंकि उनके द्वारा ही ज्ञान की प्राप्ति होती है। शिक्षा-एक यशस्वी दशक विद्यालय खण्ड/३५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012030
Book TitleJain Vidyalay Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhupraj Jain
PublisherJain Vidyalaya Calcutta
Publication Year2002
Total Pages326
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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