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से दूर रहना है। इन्द्रियों और मन का अपने इस कर्तव्य पर स्थिर रहने इन्द्रियाँ और मन दुर्विषयों की ओर न दौड़ें। यदि एक भी इन्द्रिय का नाम ही 'ब्रह्मचर्य' है।
दुर्विषय की ओर दौड़ती है-उसे चाहती है और उसमें सुख भी आत्मा का हित अपना स्वरूप जानने में है। आत्मा अपना मानती है तो सम्पूर्णतया वीर्यरक्षा कदापि नहीं हो सकती। इसलिये स्वरूप तभी जान सकता है-जब उसके सहायक एवं सेवक इन्द्रियाँ पूर्ण रीति से वीर्यरक्षा का अर्थ भी वही है, जो ऊपर कहा गया है तथा मन, उसके आज्ञावर्ती और शुभचिन्तक हों। विपरीतावस्था में अर्थात् सर्वप्रकार के असंयम-परित्याग-रूप इन्द्रियों और मन का आत्मा का अहित स्वाभाविक ही है। आत्मा के सहायक तथा सेवक संयम। वे ही इन्द्रियाँ और मन हैं, जो सुख की अभिलाषा से दुर्विषयों की ओर ५-ब्रह्मचर्य के तीन भेद और उनका सम्बन्ध न दौड़ें। इन्द्रियों का सुख की अभिलाषा से दुर्विषयों की ओर दौड़ना ब्रह्मचर्य मन, वचन और शरीर से होता है, इसलिये ब्रह्मचर्य तथा मन का इन्द्रियानुगामी होना आत्मा के लिए अहितकारक है। के तीन भेद होते हैं अर्थात् मानसिक-ब्रह्मचर्य, वाचिक-ब्रह्मचर्य और आत्मा का हित तभी है, जब न तो इन्द्रियाँ दुर्विषयों की ओर दौड़े और शारीरिक-ब्रह्मचर्य। मन, वचन और काय इन तीनों द्वारा पालन किया न इन्द्रियों के साथ ही साथ मन भी आत्मा का अशुभ-चिन्तक बने। गया ब्रह्मचर्य ही पूर्ण ब्रह्मचर्य है अर्थात् न मन में ही अब्रह्मचर्य की इन्द्रियाँ और मन का दुर्विषयों की ओर न दौड़ना, दुर्विषयों की चाह न भावना हो, न वचन द्वारा ही अब्रह्मचर्य प्रगट हो और न शरीर द्वारा करना और सुख की लालसा से उन्हें न भोगना ही 'ब्रह्मचर्य' है। ही अब्रह्मचर्य की क्रिया की गई हो इसका नाम पूर्ण ब्रह्मचर्य है।
इन्द्रियाँ पाँच है-कान, आँख, नाक, जीभ और त्वचा। इन याज्ञवल्क्य स्मृति में कहा हैपाँचों इन्द्रियों के पाँच विषय हैं-शब्द, रूप, गन्ध, रस और स्पर्श
कायेन मनसा वाचा, सविस्थासु सर्वदा । अर्थात् सुनना, देखना, सूंघना, स्वाद लेना और छूना। यद्यपि ये
सर्वत्र मैथुनत्यागो, ब्रह्मचर्य प्रचक्षते ।। इन्द्रियाँ हैं सुनने, देखने, सूंघने, स्वाद लेने और स्पर्श करने के लिए शरीर, मन और वचन से, सभी अवस्थाओं में सर्वदा और ही-इसी कारण इनका नाम ज्ञानेन्द्रियाँ भी है- लेकिन ये ज्ञानेन्द्रियाँ सर्वत्र मैथुन-त्याग को ब्रह्मचर्य कहा है। तभी होती हैं और तभी आत्मा का हित भी कर सकती हैं, जब कायिक ब्रह्मचर्य उसे कहते हैं, जिसके सद्भाव में, शरीर द्वारा दुर्विषयों में लिप्त न हों, उनके भोग में सुख न माने और अपने आप अब्रह्मचर्य की कोई क्रिया न की गई हो अर्थात् शरीर से अब्रह्मचर्य को दुर्विषय-भोग के लिए न समझें। इसी प्रकार मन भी आत्मा का में प्रवृत्ति न हुई हो। मानसिक ब्रह्मचर्य उसे कहते हैं जिसके सद्भाव हित करने वाला तभी है, जब वह अपने पद से भ्रष्ट होकर, इन्द्रियों में दुर्विषयों का चिन्तन न किया जावे, अर्थात् मन में अब्रह्मचर्य की का अनुगामी न बन जावे और न इन्द्रियों को ही दुर्विषयों की ओर भावना भी न हो। वाचिक-ब्रह्मचर्य उसे कहते हैं जिसके सद्भाव में जाने दे। मन का काम इन्द्रियों को सुख देना नहीं, किन्तु आत्मा को अब्रह्मचर्य के सद्भाव को पूर्ण ब्रह्मचर्य कहते हैं। सुख देना है और इन्द्रियों को भी उन्हीं कामों में लगाना है, जिनसे कायिक, मानसिक और वाचिक ब्रह्मचर्य का परस्पर कर्ता आत्मा सुखी हो। इन्द्रियों और मन का, इस कर्तव्य को समझ कर क्रिया और कर्म का सा सम्बन्ध है। पूर्ण ब्रह्मचर्य वहीं हो सकता इस पर स्थिर रहना ही 'ब्रह्मचर्य' है।
है जहाँ उक्त प्रकार के तीनों ब्रह्मचर्य का सद्भाव हो। एक के ३-गाँधीजी कृत ब्रह्मचर्य की परिभाषा
अभाव में दूसरे और तीसरे का-एकदम से नहीं तो शनैः शनैः ___ गाँधीजी ने 'ब्रह्मचर्य' के अर्थ में लिखा है- "ब्रह्मचर्य का अभाव स्वाभाविक है। अर्थ है सभी इन्द्रियाँ और सम्पूर्ण विकारों पर पूर्ण अधिकार कर सारांश यह कि इन्द्रियों का दुर्विषयों से निवृत्त होने, मन का लेना। सभी इन्द्रियों को तन, मन और वचन से, सब समय और सब दुर्विषयों की भावना न करने, दुर्विषयों से उदासीन रहने, मैथुनाङ्गों क्षेत्रों में संयमित करने को 'ब्रह्मचर्य' कहते हैं।'
सहित सब प्रकार के मैथुन त्यागने और मानसिक शक्ति को ४-ब्रह्मचर्य की व्यावहारिक परिभाषा
आत्मचिन्तन, आत्महित-साधन तथा आत्मविद्याध्ययन में लगा देने यद्यपि सब इन्द्रियाँ और मन का दुर्विषयों की ओर न दौड़ने का ही नाम 'ब्रह्मचर्य' है। का नाम ब्रह्मचर्य है, लेकिन व्यवहार में, ब्रह्मचर्य का अर्थ केवल 'वीर्यरक्षा' ही लिया जाता है। इस व्यावहारिक अर्थ-अर्थात् पूर्ण रुपेण वीर्यरक्षा- से भी इन्द्रियों और मन का दुर्विषयों की ओर दौड़ना ही मतलब निकलेगा। पूर्णतया वीर्यरक्षा तभी हो सकती है, जब सभी
विद्वत खण्ड/१०
शिक्षा-एक यशस्वी दशक
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