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________________ ब्रह्मचर्य का भोजन के साथ घनिष्ट सम्बन्ध है। भोगी का भोजन ब्रह्मचर्य पालन से किसी को किसी रोग का शिकार होना पड़ा है और और योगी का भोजन एक-सा नहीं हो सकता। ब्रह्मचर्य की साधना न ऐसा कोई उदाहरण ही देखा गया है। हाँ, ठीक इससे उल्टे जो लोग करने वालों को ऐसा और इतना ही भोजन करना चाहिये जिससे शरीर विषयी होते हैं, वे ही रोगों द्वारा सताये जाते हैं। यह बात तो प्रत्यक्ष की रक्षा हो सके और जो ब्रह्मचर्य में बाधक न होकर साधक हो। दिखाई देती है। अतएव अपने हृदय से इस भ्रान्ति को निकाल फेंको अधिक गरिष्ठ, तेज, मसालेदार और परिमाण से अधिक भोजन सर्वथा कि ब्रह्मचर्य से रोग पैदा होते हैं। ब्रह्मचर्य जीवन है। उससे शक्ति का हानिकारक है। विकास होता है। जहाँ शक्ति है, वहाँ रोगों का आक्रमण नहीं होता। १३-ब्रह्मचर्य के सम्बन्ध में लोगों की भ्रान्त धारणा अशक्त और दुर्बल पुरुष ही रोगों द्वारा सताये जाते हैं। विषय-भोग की कामना का नियन्त्रण नहीं हो सकता, यह कामना खेद है कि लोगों के मन में यह भ्रम उत्पन्न हो गया है कि विषय अजेय है, इस प्रकार की दुर्भावना पुरुष-समाज में एक बार पैठ पाई, भोग की इच्छा का दमन करना अशक्य है। परन्तु जैसे नेपोलियन ने तो भयंकर अनर्थ होंगे और उन अनर्थो की परम्परा का सामना करना। असम्भव शब्द कोश में से निकाल डालने को कहा था उसी प्रकार सहज नहीं होगा। तुम अपने हृदय में से निकाल बाहर करो। ऐसा करने से तुम्हार यद्यपि आजकल भी अनेक लोग हैं, जिनकी यह भ्रान्त धारणा मनोबल सुदृढ़ बनेगा और तब विषय-भोग की कामना पर विजय प्राप्त हो गई है कि मनुष्य कामभोग की वासना पर विजय नहीं प्राप्त कर करना तनिक भी कठिन न होगा। सकता। संभवत: वे लोग मनुष्य को काम वासना का कीड़ा समझते त्रिविध ब्रह्मचर्य हैं। पर प्राचीन आर्य-ऋषियों का अनुभव इस धारणा का विरोध करता है। कोई व्यक्ति विशेष ब्रह्मचर्य का पालन करने में असमर्थ रहे, यह १-ब्रह्मचर्य शब्द की प्रवृत्ति का निमित्त एक बात है और यह कहना कि ब्रह्मचर्य का पूर्ण रूप से पालन करना 'ब्रह्मचर्य' एक ही शब्द नहीं है, किन्तु 'ब्रह्म' शब्द में 'चर्य' संभव नहीं है, दूसरी बात है। किसी व्यक्ति की असमर्थता के आधार कृत प्रत्ययान् से बना हुआ संस्कृत शब्द है। ब्रह्मचर्य ब्रह्मचर्य। पर किसी व्यापक सिद्धान्त का निर्माण कर बैठना, सच्चाई के साथ 'ब्रह्म' शब्द के वैसे तो कई अर्थ होते हैं, परन्तु यहाँ यह शब्द वीर्य, अन्याय करना है। इस प्रकार असमर्थता की ओट में विषयभोगों का विद्या और आत्मा के अर्थ में है। 'चर्य' का अर्थ, रक्षण, अध्ययन तथा विचार करना सर्वथा अनुचित है। चिन्तन है। इस प्रकार ब्रह्मचर्य का अर्थ वीर्यरक्षा, विद्याध्ययन और आज भी संसार में ऐसे व्यक्तियों का मिलना असंभव नहीं है आत्म-चिन्तन है। ‘ब्रह्म' का अर्थ उत्तम काम या कुशलानुष्ठान भी जो बाल्यावस्था से ही ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए जन-सेवा कर रहे होता है, इसलिये ब्रह्मचर्य का अर्थ उत्तम या कुशलानुष्ठान का हैं। फिर भीष्म और भगवान् नेमिनाथ जैसे पवित्र ब्रह्मचारियों का उच्च आचरण भी है। ब्रह्मचर्य शब्द के इन अर्थों पर दृष्टिपात करने से हम आदर्श जिन्हें मार्ग-प्रदर्शन कर रहा हो, उन भारतवासियों के हृदय में इस निर्णय पर पहुँचते हैं कि जिस आचरण द्वारा आतम-चिन्तन हो, न जाने यह भूत कैसे घुस गया है कि विषय वासना पर काबू रखना आत्मा अपने आपको पहचान सके और अपने लिए वास्तविक सुख शक्य नहीं है। साधु हुए बिना ब्रह्मचर्य का पालन हो ही नहीं सकता प्राप्त कर सके, उस आचरण का नाम 'ब्रह्मचर्य' है। इस अर्थ में और गृहस्थ-जीवन में ब्रह्मचर्य का अनुष्ठान एकदम अशक्यानुष्ठान ब्रह्मचर्य शब्द के ऊपर कहे हुए सभी अर्थ आ जाते हैं। है! वास्तव में यह धारणा सर्वथा भ्रमपूर्ण है। मनोबल दृढ़ होने पर पूर्ण २-ब्रह्मचर्य की परिभाषा या नैष्ठिक ब्रह्मचर्य का पालन किया जा सकता है। यही नहीं वरन् आत्मचिन्तन के लिए, इन्द्रियों और मन पर विजय पाना विवाहित जीवन व्यतीत करते हुए गृहस्थ जीवन में भी ब्रह्मचर्य का आवश्यक है। प्राकृतिक नियमों के अनुसार इन्द्रियाँ मन के, मन बुद्धि पालन किया जा सकता है। ब्रह्मचर्य पालने से किसी भी प्रकार की के और बुद्धि आत्मा के अधीन एवं आत्मा की सहायिका होनी हानि की सम्भावना नहीं है। यही नहीं किन्तु अनेक प्रकार के लाभ होते चाहिये। ऐसा होने पर ही आत्मा अपने आपको जान सकता है, इन्द्रियाँ हैं। कहा भी है : मन और बुद्धि का कर्तव्य, आत्मा को बलवान् तथा पुष्ट बनाना है। ब्रह्मचर्यप्रतिष्ठायां वीर्यलाभः । बलवान् आत्मा ही अपना स्वरूप जान सकता है, विद्याध्ययन में समर्थ कुछ महानुभावों ने एक नये सिद्धान्त का आविष्कार किया है। हो सकता है और उत्तम काम तथा कुशलानुष्ठान कर सकता है। उनकी अनोखी सी समझ यह है कि ब्रह्मचर्य का पालन करने से शरीर । इसलिये इन्द्रियों, मन और बुद्धि का काम आत्मा को बलवान् बनाना, में रोग उत्पन्न होते हैं। पर न तो आज तक यह सना गया है कि आत्मा के हित को दृष्टि में रखना, आत्मा का अहित करने वाले कामों शिक्षा-एक यशस्वी दशक विद्वत खण्ड/९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012030
Book TitleJain Vidyalay Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhupraj Jain
PublisherJain Vidyalaya Calcutta
Publication Year2002
Total Pages326
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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