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कार्मण-अष्ट कर्मों के विकार से संबंधित शरीर।
ज्ञातव्य है कि तेजस और कार्मण शरीरों का सम्बन्ध आत्मा के साथ अनादिकाल से है और मोक्ष पाये बिना अलग नहीं होते।
अंग, उपांग, अंगोपांग (३) अंग-भुजा, पैर, सिर, पीठ आदि। उपांग-अंगुली आदि। अंगोपांग-अंगुलियों की पर्व रेखाएँ।
संहनन (१) वज्र ऋषभनाराच-विशेष आकार युक्त मजबूत अस्थि रचना।
संस्थान (१) सम-चतुरस्र-पर्यकासनवत् संस्थान युक्त शरीर शुभवर्ण, गन्ध रस स्पर्श, युक्त शरीर (४) ___ आनपूर्वी (२) देवानुपूर्वी-कर्मक्षय के अंतिम दौर में जीव को अन्यगति की ओर आकृष्ट होते हुए बचा कर देवगति में ले जाना।
मनुष्यानुपूर्वी-विग्रह गति के समय पुन: मनुष्य गति में खींचने वाले कर्म पुद्गल।
शुभ विहायोगति (१) हंस, हाथी, वृषभ की चाल।
बस दशक (१०) त्रस नाम, बादर नाम, पर्याप्त नाम, प्रत्येक नाम, स्थिर नाम, शुभ नाम, सुभग नाम, सुस्वर नाम, आदेय नाम एवं यश: कीर्ति नाम।
३१. अगुरुलघु ३२. पराघात नाम (अजेय पराक्रम) ३३. आतप नाम ३४. उद्योत नाम ३५. श्वासोच्छवास नाम ३६. निर्माण नाम ३७. तीर्थंकर नाम। पाप
जो आत्मा को पतन की ओर ले जाए, मलीन करे और जिसके कारण दुःख की प्राप्ति हो, पाप कहते हैं। अशुभ योगों से बन्ध कर पाप कटु फल प्रदायक हैं।
पाप उपार्जन के अठारह कारण हैं :१. प्राणातिपात-जीवों की हिंसा या उन्हें दुःख देना। २. मृषावाद-असत्य भाषण। ३. अदत्तादान-स्वामी की आज्ञा बिना वस्तु लेना। ४. अब्रह्मचर्य-कुशील सेवन। ५. परिग्रह-धन लिप्सा ममत्व । ६. क्रोध-कोप एवं गुस्सा। ७. मान-अहंकार जिसके कारण चित्त की कोमलता और
विनय लुप्त हो जाय। ८. माया-छल-कपट। ९. लोभ-तृष्णा, असंतोष। १०. राग-माया और लोभ के कारण आसक्ति एवं मनोज्ञ वस्तु
के प्रति स्नेह।
११. द्वेष-अमनोज्ञ वस्तु से द्वेष। क्रोध एवं मान के वश होकर
द्वेष की जागृति। १२. कलह-लड़ाई-झगड़ा। १३. अभ्याख्यान-झूठा दोषारोपण। १४. पैशुन्य-दोष प्रगटन, चुगली। १५. परपरिवाद-दूसरों की बुराई एवं निन्दा करना। १६. रति अरति-सावध पापयुक्त क्रियाओं में चित्त लगाना,
रुचि एवं निरवद्य शुभ क्रियाओं के प्रति उदासीन, अरुचि
भाव रहना। १७. माया मृषावाद-कपट युक्त झूठ। १८. मिथ्यादर्शन-कुदेव, कुगुरु, कुधर्म के प्रति श्रद्धा रखना।
पाप का बंधन १८ प्रकार से है तो इसके फल का भोग ८२ प्रकार से होता है। आश्रव
जीव रूपी तालाब में कर्म रूपी जल का आ + श्रव अर्थात् प्रवाह होता है। संसारी जीव में प्रतिक्षण मन, वचन, काय के परिस्पन्दन के कारण कर्म पुद्गल का एकीकरण होता है। इसका उदाहरण अनेक छिद्रों वाली नाव को पानी में डालना है। मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग रूपी पाँच द्वारों से कर्म ग्रहण कर आत्मा मल युक्त होती है और तदनुसार विविध जन्म धारण करती है। मिथ्यात्व-विपरीत श्रद्धा अथवा तत्व ज्ञान का अभाव।
अविरति-त्याग के प्रति निरुत्साह एवं भोग के प्रति उत्साह। प्रमाद-मद्य, विषय, निद्रा एवं विकथा युक्त आचरण। कषाय-क्रोध, मान, माया, लोभ की वृत्तियाँ।
योग-मन, वचन, काया की शुभाशुभ प्रवृत्ति। संवर__ अध्यात्म-साधना में संवर महत्वपूर्ण तत्व है। आत्मा को कर्म बन्धन से मुक्त करने के लिये सर्वप्रथम आश्रवों को रोकना आवश्यक है। जब तक आश्रवरूपी द्वार खुला रहेगा, तबतक पूर्व आबद्ध कर्म के साथ नये कर्मों का आना भी चालू रहेगा। यदि पूर्व-कर्म फल देकर आत्मा से पृथक हो भी जाय तो नव अजित कर्म अपना प्रभाव डालने को तैयार हो जायेंगे।
इसके मुख्य छ: भेद हैं-समिति, गुप्ति, परीषह, यतिधर्म, भावना और चारित्र। समिति आदि वास्तविक संवर तभी बन सकते हैं जबकि वे जिनाज्ञापूर्वक हों। अत: संवर में सम्यक्त्व का समावेश हो ही जाता है। आश्रव का निरोध करना संवर है, अत: सम्यग्दर्शन से मिथ्यात्व आश्रव रुकता है। यति धर्म और चारित्र से अविरति आश्रव रुकता है। गुप्ति, भावना और यतिधर्म से कषाय आश्रव रुकता है। समिति, गुप्ति,
शिक्षा-एक यशस्वी दशक
विद्वत खण्ड/२१
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