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१ ऋतु
पुद्गल के चार भेद हैं
(१,६७, ७७, २१६ आवलिका = १ मुहूर्त) स्कन्ध-परस्पर बद्ध प्रदेशों का समुदाय।
३० मुहूर्त = १ दिन रात देश-स्कन्ध का एक भाग।
१५ दिन रात = १ पक्ष प्रदेश-स्कन्ध या देश से मिला हुआ द्रव्य का सूक्ष्म भाग।
२ पक्ष
१ माह परमाणु-पुद्गल का सूक्ष्मतम अंश (परम+अणु) जिसका अन्य
२ माह विभाग न किया जा सके।
३ ऋतुएँ
१ अयन अन्धकार, छाया, प्रकाश, शब्द आदि पुद्गल की अवस्थाएँ हैं।
२ अयन = १ वर्ष पुद्गल सदा गतिशील रहता है और जीव से मिलकर तदनुसार गति पण्य प्रदान करता है। पुद्गल के चार धर्म हैं, जिसके निम्न भेद हैं- जो आत्मा को शभ की ओर ले जाए. पवित्र करे और सख प्राप्ति
स्पर्श (८) मृदु, कठिन, गुरु, लघु, शीत, उष्ण, स्निग्ध एवं रुक्ष। का सहायक हो, पुण्य है। पुण्य शुभ योग से बन्धता है। पुण्य का फल रस (५) तिक्त, कटु, अम्ल, मधुर, कषैला।
मधुर है। इसे बाँधना कठिन है और भोगना सहज है। गंध (२) सुगन्ध, दुर्गन्ध।
आत्मा की वृत्तियाँ अगणित हैं। अत: पुण्य-पाप के कारण भी वर्ण (५) नील, पोत, शुक्ल, कृष्ण, लोहित।
अनेक हैं। शुभ प्रवृत्ति पुण्य का और अशुभ-प्रवृति पाप का कारण २. धर्मास्तिकाय-जीव और पुद्गल द्रव्यों को गति करने में ।
बनती है। पुण्य नौ प्रकार से बाँधा जाता है और ४२ प्रकार से भोगा सहायक द्रव्य को धर्मास्तिकाय कहा जाता है। यह गति का प्रेरक नहीं,
जाता है। सहायक तत्व है। जिस प्रकार मछली के लिए जल सहकारी है उसी
पुण्य के नौ भेद प्रकार धर्मास्तिकाय है। इसके तीन भेद हैं स्कंध, देश और प्रदेश।
१. अन पुण्य - अन्न दान। ३. अधर्मास्तिकाय-जीव और पुद्गल को गतिशीलता से
२. पान पुण्य - जल या पेय दान। स्थिर होने या ठहरने में सहायक द्रव्य को अधर्मास्तिकाय कहते हैं।
३. लयन पुण्य - स्थान या जगह देना। इसके भी तीन भेद हैं-स्कंध, देश और प्रदेश।
४. शयन पुण्य - शय्या, पाट, पाटला देना। ४. आकाशास्तिकाय-जो सब द्रव्यों को अवकाश या
५. वस्त्र पुण्य - वस्त्र दान। आकाश देता है। इसके दो भेद लोकाकाश और अलोकाकाश हैं।
६. मन पुण्य -शुभ चिन्तन, गुणी जन को देख प्रसन्नता एवं लोकाकाश में सभी द्रव्य हैं परन्तु अलोकाकाश में केवल आकाश
मन का शुभ योग प्रवर्तन। द्रव्य है। इसको भी स्कंध, देश और प्रदेश में विभाजित किया जा
७. वचन पुण्य - शुभ-हितकारी वचन, मधुर वचन। सकता है।
८. काय पुण्य - शरीर द्वारा जीवों की सेवा आदि करना। ५. काल-जो द्रव्यों की वर्तना (परिवर्तन) का सहायक है, उसे
९. नमस्कार पुण्य - गुणीजनों, गुरुजनों आदि का विनय व नमन। काल द्रव्य कहते हैं। नए, पुराने, बचपन, जवानी आदि की पहिचान
पुण्य कर्म भोगने की ४२ प्रकृतियाँ काल द्रव्य से होती है। काल अस्ति (सत्ता) तो है परन्तु बहुप्रदेशी न
वेदनीय के उदय से होने के कारण 'काय' रहित है अर्थात् अप्रदेशी है।
(१) साता वेदनीय = सुख जैनागमों में काल को विशेष रूप से निरूपित किया गया है। जहाँ
आयुकर्म के उदय से (३) देव-मनुष्य-तिर्यंच आयु आज संख्याएँ दस शंख तक मानी जाती हैं, जैन शास्त्रों में उससे बहुत
गौत्रकर्म के उदय से (१) उच्चगौत्र आगे तक वर्णित हैं। काल की सूक्ष्मतम इकाई 'समय' को माना गया
नामकर्म के उदय से (३७) है और आँख झपकने में असंख्यात समय व्यतीत होते हैं। समय से
गति/जाति (३) मनुष्य गति, देव गति व पंचेन्द्रिय जाति। लेकर वर्ष तक काल की निम्नलिखित पर्यायें हैं :
शरीर (५) औदारिक-औदारिक (उदर) शरीर मनुष्य, पशु-पक्षी (समय = सूक्ष्मतम इकाई)
आदि। ४४४६ आवलिका = १ श्वासोच्छ्वास
वैक्रिय-नानारूप शरीर बनाना- देवता, नारकी, जीव लब्धिधारी ७ श्वासोच्छ्वास = १ स्तोक
मनुष्य एवं तिर्यञ्च भी। ७ स्तोक = १ लव
आहारक-शरीर में से शरीराकार सूक्ष्म शरीर निकालना। ७७ लव १ मुहूर्त
तेजस-तपोबल से तेजोलेश्या निकालने की शक्ति।
विद्वत खण्ड/२०
शिक्षा-एक यशस्वी दशक
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