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जैसे आगे बढ़ रहे थे, मानस रचयिता गोस्वामीजी की याद मन में उत्तर प्रदेश के पूर्वाञ्चल स्थित गोरखपुर जिले के विभाजित थिरकने लगी थी, उनका चेहरा, उनकी साधना जैसे सब आँखों के देवरिया जिले के छोटे से गाँव रामकोला में जन्मे परमश्रद्धेय स्वामी सामने नाचने लग गये थे। हम चित्रकूट पहुँच गये। निस्तब्ध नीरव परमानन्दजी महाराज बचपन से ही अपने क्रिया कलापों के कारण नगरी जैसे गोस्वामीजी की साधना में व्यवधान के भय से शान्त हो लोगों में अद्वितीय बन गये थे। उनकी श्रद्धा-भक्ति जन-मानस से दूर गयी हो। लगता ही नहीं कि यहाँ जनमानस का कोलाहल होता हो। थी। कोई उनके ईश्वर-प्रेम को समझ नहीं पाता था। उसी गाँव में जन-कोलाहल से दूर होने के कारण गोस्वामीजी ने अपनी भक्ति- एक लंगडू बाबा थे जो बालक की दैवीय सत्ता को समझते थे, भावना को साकार करने के लिए तपस्यास्थली के रूप में इसे चुना जिनकी प्रेरणा से बालक परवर्ती दिनों में गृहस्थ आश्रम छोड़कर होगा, जो उनकी ईश्वर अनुरक्त भावना को पोषण देती रही होगी। सन्यास ग्रहण कर सका।
चित्रकूट नगर मन्दाकिनी गंगा के उभय किनारे पर बसा हुआ है। बचपन से ईश्वर भक्ति में लीन होने के कारण किसी पथमन्दाकिनी के तट पर रामघाट अत्यन्त मोहक स्थान है। चित्रकूट प्रदर्शक की आवश्यकता तो उन्हें थी नहीं, प्रेरणास्वरूप लंगडू बाबा चौरासी कोस में फैला हुआ प्राकृतिक सुषमा सम्पन्न स्थल है। रामघाट, मिल ही गए थे। बालक गृहस्थ आश्रम में रहते हुए भी साधना के जानकी कुंड, हनुमान धारा, स्फटिक शिला आदि ऐसे और दृश्य हैं लिए आतुर रहता था। अन्ततः एक दिन ऐसा आया जब गृहस्थी जो चित्रकूट की पौराणिक महत्ता का परिचय देते हैं। चित्रकूट के के सम्पूर्ण दायित्व से निवृत्त होकर, सन्यास धर्म ग्रहण कर बालक चतुर्दिक पंचक्रोशी स्थान है, जो साठ-सत्तर किलोमीटर के क्षेत्रफल ने परिभ्रमण आरम्भ कर दिया। में फैला हुआ है। मन्दाकिनी के तट पर प्राय: सभी स्थान एक के बाद परिभ्रमण काल में उन्हें किसी नियत स्थान की कामना तो थी एक बसे हुए हैं, जो चित्रकूट जाने वाले धर्मानुरागियों की श्रद्धा को नहीं, जिधर आदेश होता उधर चले जाते। इसी क्रम में विचरण उद्दीप्त करते हैं एवं उस सन्त शिरोमणि की, राम भक्ति की सगुण करते उन्होंने समस्त भारत का भ्रमण किया। सर्वप्रथम उन्होंने अपनी मार्गी धारा को सर्वोच्च आसनासीन करती है। हर मानस अनुरागी इस यात्रा अयोध्या से आरम्भ की, इसके बाद जो भी स्थान रास्ते में पड़ा स्थान पर पहुँच कर अपना जीवन सार्थक समझता है।
उससे होते हुए वे आगे बढ़ते गए। परिभ्रमण काल में उन्होंने __ यात्रा का दूसरा पर्व शुरु होता है चित्रकूट से अनसुइया के गोरखपुर, जौनपुर, काशी, प्रयाग, अयोध्या, कलकत्ता, बम्बई, जम्मू लिए। सती अनसुइया आश्रम पौराणिक काल से महत्वपूर्ण है। ऋषि कश्मीर से होते हुए हिमालय के बर्फीले प्रदेश में समय बिताया और अत्रि तथा उनकी पत्नी अनसुइया की साधना स्थली यही स्थान है। अनासक्त भाव से ईश्वर की सत्ता से साक्षात्कार करने के लिए वे उनके समकालीन अन्य ऋषि मुनियों ने भी अपनी साधना एवं भक्ति सतत् आगे बढ़ते रहे। के बल पर इस स्थान को पवित्र बनाया है। अपनी पौराणिक महत्ता इसी यात्रा क्रम में स्वामीजी ने अन्त:करण की प्रेरणा से स्फूर्त के अतिरिक्त सती अनसुइया आश्रम आज धर्मानुयायियों के लिए होकर अयोध्या में पदार्पण किया और वहाँ से चित्रकूट होते हुए एक महत्वपूर्ण स्थान बन गया है। इसकी महत्ता कई रूपों में दिखाई अनसुइया पर्वत पर अपना स्थायी आश्रम बनाकर रहने का विचार पड़ती है। अनसुइया आश्रम की वर्तमान मर्यादा परमहंस आश्रम के किया। हर्षित मन से स्वामीजी ने चित्रकूट से अनसुइया आश्रम तक साथ जुड़ी है, जो आज वन्य प्रान्तर के बीच चहल-पहल का केन्द्र की यात्रा की थी। उन्होनें सोचा था भगवद्भक्ति का सबसे शान्त बना हुआ है। आज से कुछ वर्ष पहले तक अनसुइया स्थान जंगली स्थान यही हो सकता है। जन्तुओं का अड्डा मात्र था। पर जन कोलाहल होने के कारण पशु- चित्रकूट से अनसुइया जाने का पथ जंगली बीहड़ पथ से था, समाज वहाँ से अपनी सत्ता समेटता हुआ अन्यत्र चला गया। कँटीले रास्ते बड़े दुर्गम थे। उसी दुर्गम पथ से होते हुए स्वामीजी ने
मन्दाकिनी तट पर विन्ध्य पर्वत की तलहटी में अवस्थित परमहंस अपनी कामना पूर्ति के लिए अनसुइया स्थल को चुना था, जो उस आश्रम आज विशेष रूप से भक्तों के लिए तीर्थस्थल बना हुआ है। समय केवल हिंसक पशुओं का केन्द्र था। “भौतिक मोह-माया के पौराणिक महत्व के साथ-साथ इस स्थान की साम्प्रतिक महत्ता भक्तों जाल से निवृत्त होकर मनुष्य जब समरस जीवन यापन करता है, के लिए आकर्षण का केन्द्र है। "सन्त महात्मा जिस स्थान पर पहुँचते तब पशु समाज में भी मानवता झलकती है।" इसी दृष्टिकोण से हैं, वह स्थान स्वत: तीर्थ स्थल बन जाता है।" अपनी जीवन लीला उन्होंने उस जंगल में मंगल की कामना से अपना आसन जमाया था। व्यतीत करते हुए देश परिभ्रमण करते हुए स्वामी परमहंसजी महाराज अनसुइया आश्रम में पहुँचने से पहले भी स्वामीजी निष्णात हो ने अपनी लीला और साधना स्थली के रूप में इसी स्थान को अधिक चुके थे और अपने शुद्ध सात्विक सन्तन्त्व के बल पर विभिन्न स्थानों उपयुक्त समझकर यहीं रहना उचित समझा था।
पर पाखण्ड के दर्प से दीप्त तमाम बगुला-भगतों को परास्त कर
शिक्षा-एक यशस्वी दशक
विद्यालय खण्ड/५५
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