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चुके थे पर वे किसी जाति या सम्प्रदाय के साथ अपने को जोड़ना नहीं चाहते थे। अनसुइया आश्रम में जब वे स्थायी निवास करने लगे और अपनी भक्ति साधना के बल पर जनमानस में पूजे जाने लगे तो देश के समस्त भूभाग से श्रद्धालु आपकी चरण-रज के लिए यहाँ आने लगे।
अपनी तेजस्वी प्रकृति के बल पर आपने जंगल को स्वर्ग बना दिया और अनायास ही उनकी भक्ति साधना से प्रभावित होकर सुदूरवर्ती गाँवों के लोग उनकी ओर आकर्षित हो गये। बड़े-से-बड़े साधु महात्मा आपके सम्पर्क में आकर 'ब्रह्म' की खोज में लीन हो गये । आपके द्वारा बसाया गया अनसुइया परमहंस आश्रम आज समस्त देश के श्रद्धालुओं और दर्शनार्थियों के लिए पूजनीय स्थान है।
स्वामी परमहंसजी के सुयोग्य शिष्यों ने उनके आशीर्वचन को मर्यादा मञ्जरी के रूप में समस्त देश में फैलाना शुरू कर दिया था। स्वामीजी के वर्तमान आश्रम संचालक परम श्रद्धेय स्वामी भगवानन्दजी महाराज समस्त भारत में व्याप्त सैकड़ों आश्रमों की व्यवस्था देख रहे हैं और अपनी साधना भक्ति के बल पर शिष्यों को अपने आशीर्वाद से समृद्ध कर रहे हैं। स्वामीजी के दर्शन के लिए ही हम लोगों ने अनसुइया की यात्रा का निश्चय किया था।
यात्रा के अन्तिम दौर मे चित्रकूट से अत्यधिक सँकरे मार्ग से होते हुए हम लोग अपने वाहन से अनसुइया पहुँच गए। माघ महीने की ठण्ड, दिन के तीन बजे ही सन्ध्या का स्वरूप दिखाई पड़ रहा था । विन्ध्य पर्वत की प्राकृतिक सुषमा सावन की - सी हरियाली से लदी हुई थी। पर्वत खण्ड के नीचे मन्दाकिनी तट पर बना हुआ परमहंस आश्रम जिस नैसर्गिक सुषमा की आनन्द दे रहा था उसका वर्णन कल्पनातीत है। आश्रम का समृद्ध संसार अपनी पूर्णता का परिचय दे रहा था। वन प्रान्तर की नीरवता से आभास हो रहा था कि स्वामीजी ने इसी कारण इस स्थान को चुना होगा।
आश्रम में पहुँचने पर नये समाज की झलक मिलने लगी । आश्रम चारों तरफ पर्वत से घिरा हुआ तलहटी में बसा हुआ है। आज अनगिनत लोग उसी आश्रम में रहकर अपनी भक्ति साधना कर रहे हैं और दर्शनार्थियों के लिए प्रेरक हो रहे हैं।
आश्रम से दो तीन मील की दूरी पर पर्वत की तलहटी में सन्तों की सारस्वत सत्ता को साकार स्वरूप देते स्वामी भगवानन्दजी महाराज अपनी साधना में तल्लीन थे। माघ महीने में कँपाने वाली ठण्ड में भी साधारण-सा वस्त्र धारण कर महल जैसे राजसिक सुख का परित्याग कर स्वामीजी साधनारत थे दूर से ही उनके दर्शन से हम सब कृत-कृत्य हो उठे। जीवन की संचित पुण्य-पूँजी से ही ऐसे सन्त महात्मा के दर्शन होते हैं।
विद्यालय खण्ड ५६
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पर्वत प्रदेश के उस भूखण्ड में हमलोगों की उपस्थिति से उन्होंने अपनी साधना को विराम देते हुए हमलोगों का कुशल क्षेम पूछा और प्रसाद देते हुए पुन: सुबह मिलने के ध्येय से आश्रम में रात बिताने का आदेश दिया। उनके ही एक शिष्य को छोड़कर वहाँ अन्य किसी को रहने का अवसर नहीं मिलता ।
सायंकाल स्वामीजी के दर्शन के पश्चात् हम सभी आश्रम की ओर लौट रहे थे। जंगल से चर कर वापस लौटती हुई रँभाती हुई गायों का अनुशासन देखकर स्वामीजी के नैष्टिक संस्कार का परिचय मिल रहा था, लगता था मनुष्यों से ज्यादा पशुओं को उन्होंने अधिक स्नेह सिंचित किया है। आश्रम में रात भर ठहरने की व्यवस्था हुई। माघ मास की पूर्णिमा की रजनी में चाँदनी समस्त वन प्रान्तर को आलोकित कर रही थी। दूर-दूर तक दिखाई पड़ने वाले वृक्ष जैसे अपनी मादकता में विश्राम कर रहे हों ।
आश्रम के अनुशासन स्वरूप प्रसाद ग्रहण कर रात्रिशयन किया गया। निस्तब्ध नीरव रजनी ने समस्त वन प्रान्तर की ध्वनि को अपने अंक में समाहित कर लिया था ब्राह्म वेला में ही चतुर्दिक ध्वनि संचार होने लगा। हमने भी अपने-अपने नित्यकर्म से निवृत्त होकर प्रभात वेला में मन्दाकिनी के उष्णोदक में स्नान किया। प्रकृति माता ने जैसे अपने भक्तों की चिन्ता कामना से मन्दाकिनी के उदक को शीत का प्रहार सहने के लिए उष्ण बना दिया है। प्रातः काल आश्रम की आरती में सबने भाग लिया। सूर्योदय हो जाने पर भी चारों तरफ से घिरा होने के कारण अंधेरा छाया था। धीरे-धीरे भगवान भास्कर की किरणें वृक्षों के झुरमुट को चीरती हुई पृथ्वी पर पड़ने लगीं जिनकी उपस्थिति से दिन होने का आभास होने लगा ।
सुबह हम सभी दर्शनार्थी अपनी मंगल कामना से प्रेरित होकर स्वामीजी के दर्शनार्थं गए। वहाँ उन्होंने हम सभी को अपने स्नेहोपहार द्वारा सिंचित कर दिया, रोम-रोम में उनका आशीर्वाद समाहित हो गया। वापस लौटते समय उन्होंने ही हम लोगों को गुप्त गोदावरी के दर्शन की आज्ञा दी। उन्हीं की आज्ञा से हम सभी गुप्त गोदावरी के दर्शनार्थ गए जो वहाँ से बारह किलोमीटर की दूरी पर है। पर्वत की गुफा के बीच यह स्थान बहुत मनोरम है। पौराणिक काल से, राम के वनवास गमन से ही यह स्थान अत्यन्त महत्वपूर्ण है । गुप्त गोदावरी के दर्शन करते हुए हम सब पुनः अनसुइया आश्रम के दर्शन की लालसा मन में लिए अपने निवास वापस हो गए। अन्त में यही बात मन में आती रही, बड़े शुभ मुहूर्त में यात्रा आरम्भ की गई थी।
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सह-शिक्षक श्री जैन विद्यालय, हावड़ा
शिक्षा एक यशस्वी दशक
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