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________________ रहती है। “कषाय" जैनदर्शन का लाक्षणिक शब्द है। यही सब जीवन के सुख बढ़े, आनन्द-मंगल होय। संसार-भ्रमण एवं कर्म-परम्परा का मूल कारण है। कषाय समस्या का मूल का अर्थ ही है-मटमैला, अशुद्ध। इसको शुद्ध करना ही धर्म की परिभाषा में जो वस्तु का स्वभाव, आत्मा के रत्नत्रय की साधना का उद्देश्य है। शुद्धिकरण की इस क्षमा आदि गुण एवं रत्नत्रय की आराधना का निरूपण किया प्रक्रिया के विकास में जैन साधना-पद्धति में एक आलोचना- गया है उसको संक्षेप में प्रस्तुत करते हुए कह दिया गया पाठ बहुत प्रचलित है, जिसके द्वारा श्रद्धालु श्रावक अपने द्वारा । कि- "जीवाणं रक्खणं धम्मो।" धर्म का यह सूत्र पर्यावरण किये प्रदूषणों के प्रति स्वयं की आलोचना करता है और शुद्धता के लिए बहुत उपयोगी है। क्योंकि गहराई से देखें तो उन्हें आगे न करने की प्रतिज्ञा करता है पर्यावरण को प्रदूषित करने में दो ही मूल कारण हैं - तृष्णा “करूं शुद्ध आलोचना, शद्धिकरन के काज" और हिंसा। इनके पर्यायवाची हैं- परिग्रह और क्रूरता। इनमें कवि जौहरीलाल ने इस आलोचना पाठ में जीवन में प्रथम साध्य है और दूसरा साधन। आश्चर्य की बात तो यह प्रमादवश जितने हिंसा, असत्य, चोरी, अब्रह्म, परिग्रह, क्रूरता, है कि हम हिंसा-निवारण की तो बात करते हैं, आन्दोलन लोभ आदि के अनुचित कार्य हो जाते हैं, उनकी आलोचना की चलाते हैं, प्रतिदिन पूजन-प्रार्थना में अहिंसा की साधना का है और कहा है कि हम अपने स्वभाव को भूलकर विभाव का पाठ दुहराते हैं किन्तु परिग्रह की वृत्ति को गले लगाते हैं, आचरण करते हैं इसलिए हम परम-पद को नहीं पाते हैं। परिग्रही को सम्मान देते हैं। हिंसा-निवारण या प्रदूषण-शोधन . "जतन' को स्वीकृति देते हुए कहा गया है में उस धन का उपयोग करना चाहते हैं, करते हैं, जो हिंसा किय आहार निहार विहारा, इनमें नहिं 'जतन' विचारा। और प्रदूषण के माध्यमों से ही एकत्र किया गया है। इसी बिन देखी धरी उठाई, बिन सोधी वसत जु खाई।। आत्मघाती विपरीत प्रक्रिया के कारण हिंसा या प्रदूषण घटने ___ इतनी सावधानी की चिन्ता यदि गृहस्थ जीवन में धार्मिक की बजाय दिनोंदिन बढ़ा है। व्यक्ति करने लग जाय तो उसकी कथनी-करनी का अन्तर आज उद्योगों के केन्द्रीकरण, यान-वाहनों के मिट जाय। वनस्पति की रक्षा की भावना उसके मन में है। अधिकाधिक प्रयोगों एवं अणुशस्त्रों और विभिन्न वैज्ञानिक किन्तु स्वार्थ और दयाहीनता के कारण उसने हरियाली को प्रयोगों से अन्तरिक्ष में इतना कचरा फैल गया है कि उससे उजाड़ दिया है। अत: अपने को वह अपराधी मानता है- आकाश में व्याप्त प्राणवायु समाप्त होने लगी है। जंगलों को हा, हा, मैं अदयाचारी, बह हरित काय तो विदारी। काटने की बढ़ोत्तरी से पर्यायवरण से ऑक्सीजन का भण्डार जल प्रदूषण का भागीदार होने का उसे आभास है। वह समाप्त हो रहा है। कीटनाशक दवाओं के प्रयोग से कीड़ेकहता है मकोड़ों की कई प्रजातियां लुप्त हो गयी हैं। धरती ने अपनी जलभल मोरिन गिरवायौ, कृमि-कल बहुघात करोयो। उर्वरक शक्ति का रूप बदल दिया है। जल के जीवों की नदियन- बिच चीर धुवाये, कोसन के जीव मराये।। हिंसा ने स्वाभाविक जल-शोधन की प्रक्रिया में बाधा आलोचना पाठ के मात्र इस पद को यदि आज उद्योग के उपस्थित कर दी है। अनावश्यक खून-खराबे ने सारे क्षेत्र में पालन करने की अनिवार्यता हो जाय तो जल-प्रदूषण पर्यावरण को क्रूर और लोभी बना दिया है। इस प्रदूषण को का अधिकांश भाग स्वयमेव रूक जायेगा। जो धार्मिक व्यक्ति अब कृत्रिम साधनों से नहीं रोका जा सकता। क्योंकि अपने दैनिक जीवन में जलचर जीवों की रक्षा की बात सोचता पर्यावरण-संशोधन की कई प्रक्रियाएँ अब व्यापारिक हो गयी है वह अपने उद्योग-धंधे में उनके विनाश की बात कैसे हैं। स्वार्थ के कारण भ्रामक रिपोर्ट प्रस्तुत करने के कारण सोचेगा? द्रव्य का अर्जन करना ही जीवन का लक्ष्य नहीं है। प्रदूषण-निरोध के अधिकांश उपाय अब भरोसेमंद नहीं रहे। तृष्णा की खाई को कौन भर सका है? अत: करुणा के मूल्य तब इनके कुछ अन्य विकल्प खोजने होंगे। प्रदूषण की को प्रतिष्ठा देना ही सच्चे मानव का उद्देश्य होना चाहिए। इस समस्या को हिंसा और लालच की समस्या मानकर उसका आलोचना पाठ का कवि अन्त में यही कामना करता है कि समाधान करना अधिक उपयोगी होगा। यदि मैं यत्नपूर्वक अपना जीवन चलाने लग जाऊँ और 'जियो और जीने दो' के सिद्धान्त को व्यवहार में अपना लूँ तो संसार अधिष्ठाता, कला संकाय के सभी प्राणी सुखी हो सकते हैं सुखाड़िया विश्व विद्यालय, उदयपुर शिक्षा-एक यशस्वी दशक विद्वत् खण्ड/७३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012030
Book TitleJain Vidyalay Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhupraj Jain
PublisherJain Vidyalaya Calcutta
Publication Year2002
Total Pages326
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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