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ऋद्धि के अभिमान से रहित, सभी प्रकार की सेवा-सुश्रुषा में परित्याग और गुणों का परिपालन, ये ही धर्म के साधन कहे सहज, आचार्य की प्रशंसा करने वाले तथा संघ की सेवा करने गये हैं (७२)। आगे कहा गया है कि जो ज्ञान है वही क्रिया वाले एवं ऐसे ही विविध गुणों से सम्पन्न शिष्य की कुशलजन का आचरण है, जो आचरण है वही प्रवचन अर्थात् प्रशंसा करते है (३७-४२)।
जिनोपदेश का सार है और जो प्रवचन का सार है, वही आगे कहा गया है कि समस्त अहंकारों को नष्ट करके परमतत्त्व है (७७)। जो शिष्य शिक्षित होता है, उसके बहुत से शिष्य होते हैं ज्ञान की महत्ता का प्रतिपादन करते हुए कहा गया है कि किन्तु कुशिष्य के कोई भी शिष्य नहीं होता (४३)। शिक्षा इस लोक में अत्यधिक सुन्दर व विलक्षण होने से क्या लाभ? किसे दी जाए, इस सम्बन्ध में कहा गया है कि किसी शिष्य क्योंकि लोक में तो चन्द्रमा की तरह लोग विद्वान के मुख को में सैकड़ों दूसरे गुण भले ही क्यों न हों किन्तु यदि उसमें ही देखते हैं (८१)। आगे कहा है कि ज्ञान ही मुक्ति का साधन विनय गुण नहीं है तो ऐसे पुत्र को भी वाचना न दी जाए। है, क्योंकि ज्ञानी व्यक्ति संसार में परिभ्रमण नहीं करता है फिर गुण विहीन शिष्य को तो क्या? अर्थात् उसे तो वाचना (८३-८४)। अन्त में साधक के लिए कहा गया है कि जिस दी ही नहीं जा सकती (४४-५१)।
एक पद के द्वारा व्यक्ति वीतराग के मार्ग में प्रवृत्ति करता है, ४. विनय-निग्रह गुण :- प्रस्तुत कृति में विनय गण मृत्यु समय में भी उसे छोड़ना नहीं चाहिए (९४-९७)। और विनय-निग्रह गुण इस प्रकार दो स्वतन्त्र द्वार हैं किन्तु ६. चारित्र गुण : - चारित्र गुण नामक छठे द्वार में विनय गण और विनय-निग्रह गण में क्या अंतर है. यह उन पुरुषों को प्रशंसनीय बतलाया गया है, जो गृहस्थरूपी इसकी विषयवस्तु से स्पष्ट नहीं होता, क्योंकि दोनों ही द्वारों बन्धन से पूर्णत: मुक्त होकर जिनेन्द्र भगवान् द्वारा उपदिष्ट की गाथाओं में जो विवरण दिया गया है उसका तात्पर्य मुनि-धर्म के आचरण हेतु प्रवृत्त होते हैं (१००)। पुन: दृढ़ विनम्रता या आज्ञापालन से ही है। यद्यपि प्राचीन आगम ग्रन्थों धैर्य मनुष्यों के विषय में कहा गया है कि जो उद्यमी पुरुष में विनय शब्द दो अर्थों में प्रयुक्त हुआ है - एक विनम्रता
क्रोध, मान, माया, लोभ, अरति और जुगुप्सा को समाप्त के अर्थ में और दूसरा आचार के नियमों के अर्थ में। प्रायः
कर देते हैं, वे परम सुख को खोज पाते हैं (१०४)। सभी प्रसंगों में विनय का तात्पर्य आचार-निमय ही चारत्रशुद्धिक विषय म कहा गया है कि पाच सामात आर प्रतिफलित होता है अत: यह कहा जा सकता है कि विनय- तीन गुप्तियों में जिसकी निरन्तर मति है तथा जो राग-द्वेष नोकामोन आनियों नहीं करता है, उसी का चारित्र शुद्ध होता है (११४)। के परिपालन से रहा होगा।
७. मरण गुण :- विनय गुण, आचार्य गुण, शिष्यं गुण, विनय-निग्रह नामक इस परिच्छेद में विनय को मोक्ष का द्वार
विनय-निग्रह गुण, ज्ञान गुण और चारित्र गुण का वर्णन करने कहा गया है और इसलिए सदैव विनय का पालन करने की
के पश्चात् अन्त में ग्रन्थकार मरण गुण का प्रतिपादन करते प्रेरणा दी गई है तथा कहा गया है कि शास्त्रों का थोड़ा जानकार
हुए समाधिमरण की उत्कृष्टता का बोध कराते हैं। वे कहते हैं पुरुष भी विनय से कर्मों का क्षय करता है (५४)। आगे कहा ।
कि विषय-सुखों का निवारण करने वाली पुरूषार्थी आत्मा गया है कि सभी कर्मभूमियों में अनन्त ज्ञानी जिनेन्द्र देवों के द्वारा
मृत्यु समय में समाधिमरण की गवेषणा करने वाली होती है भी सर्वप्रथम विनय गुण को प्रतिपादित किया गया है तथा इसे
(१२०)। आगे कहा गया है कि आगम ज्ञान से युक्त किन्तु मोक्षमार्ग में ले जाने वाला शाश्वत गुण कहा है। मनुष्यों के ।
रसलोलुप साधुओं में कुछ ही समाधिमरण प्राप्त कर पाते हैं सम्पूर्ण सदाचरण का सारतत्व भी विनय में ही प्रतिष्ठित होना।
किन्तु अधिकांश का समाधिमरण नहीं होता है (१२३)। बतलाया है। इतना ही नहीं, आगे कहा है कि विनय रहित तो
समाधिमरण किसका होता है? इस विषय में कहा गया निर्ग्रन्थ साधु भी प्रशंसित नहीं होते (६१-६३)।
है कि सम्यक् बुद्धि को प्राप्त, अन्तिम समय में साधना में ५. ज्ञान गुण : ज्ञान गुण नामक पाँचवें द्वार में ज्ञान
विद्यमान, पाप कर्म की आलोचना, निन्दा और गर्दा करने गुण का वर्णन करते हुए कहा है कि वे पुरुष धन्य हैं, जो
वाले व्यक्ति का मरण ही शुद्ध होता है अर्थात् उसका ही जिनेन्द्र भगवान् द्वारा उपदिष्ट अति विस्तृत ज्ञान को समग्रतया
समाधिमरण होता है (१३१)। साथ ही यहाँ मृत्यु के अवसर नहीं जानते हुए भी चारित्र सम्पन्न हैं (६९)। ज्ञात दोषों का
पर कृतयोग वाला कौन होता है इस पर भी चर्चा की गई है (१३३-१४०)।
विद्वत् खण्ड/६६
शिक्षा-एक यशस्वी कराक
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