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घटना तब घटित हुई बताई जाती है जब जयसिंह अपनी माता मायानल्ला देवी के संग सोमनाथ की तीर्थ यात्रा पर गया हुआ था । उसके मुख्यमंत्री शांतु को आक्रांता के साथ अपमानजनक शर्तों पर संधि करनी पड़ी। तीर्थ यात्रा से लौटने के उपरान्त जयसिंह ने इसका बदला मालवा पर जीत हासिल करके लिया। नरवर्मन के साथ हुए युद्ध का वर्णन जैन वाङ्गमय में बड़े विस्तार से किया है। इनमें जयसिंह सूरि रचित 'कुमार पाल चरित', जिनमण्डलगणि रचित 'कुमारपाल प्रबन्ध' तथा राजशेखर कृत 'प्रबन्ध कोष' प्रमुख हैं। इन काव्यों से यह जानकारी प्राप्त होती है कि इस युद्ध में जयसिंह ने नरवर्मन को बंदी बना लिया था इन रचनाओं से पूर्व की एक कृति 'कीर्ति कौमुदी' से जानकारी मिलती है कि जयसिंह ने नरवर्मन की धाः नगरी पर अपनी विजय प्राप्त कर ली। इन साहित्यिक रचनाओं के अतिरिक्त हमें कतिपय शिलालेखों से भी इस महत्वपूर्ण विजय की जानकारी मिलती है। 'तलवार' शिलालेख से इस विषय पर प्रकाश पड़ता है कि जयसिंह ने नरवर्मन का मानमर्दन कर दिया था। इसी प्रकार ललवाड़ा के गणपति मूर्ति लेख से पता चलता है कि जयसिंह ने नरवर्मन के घमंड को चूर-चूर कर दिया।" दोहड़ स्तंभ शिलालेख से ज्ञात होता है कि जयसिंह ने मालवा के राजा को कैद कर लिया था। जैन साधु जयमंगल द्वारा रचित 'शुध १ शैल शिलालेख से ज्ञात होता है कि इस युद्ध में नाडूल चाहमान अशराज ने जयसिंह का साथ दिया था। १२ कुमारपाल की बड़नगर प्रशस्ति में भी इस कथानक का उल्लेख है कि किस तरह जयसिंह ने मालवा के राजा का मानमर्दन किया था । १
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लगता है इस मालवा - विजय के उपलक्ष में ही जयसिंह ने 'महाराजाधिराज परमेश्वर १४ एवं त्रिभुवन गण्ड १५ की उपाधियों धारण कीं ।
जयसिंह का द्वितीय महत्वपूर्ण युद्ध सौराष्ट्र के साथ हुआ। आ० हेमचन्द्र ने 'सिद्ध-हेम-व्याकरण' में सौराष्ट्र विजय का वर्णन किया है । १६ 'कीर्ति कौमुदी' के अनुसार जयसिंह ने शक्तिशाली सौराष्ट्र के 'खेंगार' को युद्ध में परास्त किया । १७ विविध तीर्थ कल्प' में भी राजा का नाम 'खेंगार राय' उल्लिखित है । १८ इसी प्रकार 'पुरातन प्रबन्ध संग्रह' में भी इस युद्ध का उल्लेख किया गया है । १८ 'प्रबन्ध चिन्तामणि' के अनुसार जयसिंह ने सौराष्ट्र के प्रबन्धन हेतु 'सज्जन' को अपना 'दण्डाधिपति' अथवा 'राज्यपाल' नियुक्त किया । २० जयसिंह के राज्यत्वकालीन वि० सं० १९९६ के दोहड शिलालेख में भी यह उल्लिखित है कि उसने सौराष्ट्र के राजा को बंदी बनाकर कारावास में बंद कर दिया था। २१ 'प्रबंध चिन्तामणि' के सूत्रों से यह तो स्पष्ट हो ही जाता है कि सौराष्ट्र पर विजय ई०
शिक्षा - एक यशस्वी दशक
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१९२५-२६ से पूर्व कभी भी हुई होगी।
जयसिंह की एक और महत्वपूर्ण उपलब्धि अनार्य राक्षस राजा 'बरबरक' पर विजय प्राप्ति था इस उपलब्धि के पश्चात् ही उसे 'सिद्धराजा' की उपाधि से विभूषित किया गया । २२ इसी विजयप्राप्ति के पश्चात् उसे 'बरबरक जिष्णु' का विरूद भी प्राप्त हुआ। उज्जैन के वि०सं० १९९६ के खण्डयुक्त पाषाण शिलालेख में इसका स्पष्ट उल्लेख हुआ है। इस युद्ध विषयक वर्णन जैन कृति २३ 'वाग भट्टालंकार' २४ में भी गुम्फित है। 'प्रबन्ध कोष' से हमें चन्देल 'मदनवर्मन' के साथ उसकी राजधानी 'महोबा' के लिए हुए युद्ध विषयक जानकारी प्राप्त होती है । अन्ततः जयसिंह ने छियानवे करोड़ स्वर्ण मुद्राएँ प्राप्त कर युद्ध को समाप्त किया। 'कालींजर' के 'पाषाण शिलालेख' से भी उपर्युक्त घटना पर प्रकाश पड़ता है (जनरल ऑफ एसियाटिक सोसाइटी, १८४८) ।
हेमचन्द्राचार्य कृत 'चडोनुशासन २५ तथा वागभट्ट कृत अलंकार के लेखन से उजागर होता है कि जयसिंह ने सिंधुराज को युद्ध में हराया था। 'वाग भट्टलंकार' के टीकाकार सिंह देवगण लिखते हैं कि वह 'सिंधुदेशधीप' अर्थात् सिंध का शासक था। जयसिंह के ११४० ई० के 'दोहड़ शिलालेख' में इस युद्ध के विषय में उल्लेख किया गया है। २६
संपादलक्ष के 'अनक राजा' (अर्णोराजा) (१९३९-११५३ ई०) का वर्णन 'प्रबन्ध चिन्तामणि' में किया गया है। उसने अर्णोराजा से लाखों वसूल करके छोड़ा । २७ सांभर से प्राप्त एक शिलालेख में भी यह उल्लिखित है कि 'आनक' जयसिंह के अधीन हो गया था । २८
इसी प्रकार जयसिंह के दक्षिण भारतीय अभियान के विषय में भी हमें 'जिन मंडन गिरी' कृत 'कुमारपाल प्रबन्ध' से ज्ञात होता है । २९ एक हस्तलिखित जैन ग्रन्थ से जयसिंह के 'देवगिरी' अभियान के विषय में जानकारी मिलती है। वहाँ से जयसिंह 'पैठान' की ओर अग्रसर हो गया जहाँ के राजा ने उसकी अधीनता स्वीकार कर ली। 'कल्याण कटक' में उस समय 'विक्रमादित्य षष्ठ' का स्वामित्व था। इसका विरूद 'परमार्दी' था। जयसिंह के 'तालवार शिलालेख' में परमार्थी के हार जाने का उल्लेख किया गया है। ३० 'कोल्हापुर प्रबंध चिन्तामणि के सर्गों से हमें जयसिंह का उस क्षेत्र में अधिकार होने का पता चलता है । ३१
इस तरह उपर्युक्त लगभग दस युद्धों में विजय प्राप्त कर जयसिंह एक मान्यताप्राप्त योद्धा बन गया था और अपने बाहुबल से वह निर्विवादित रूप से सांभर से कोंकण तक का एकाधिपति बन चुका था।
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विद्वत खण्ड / ५१
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