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________________ जरा गहरे में उतरें, इस कथन को समझें - श्रमण संस्कृति समझें। समझें हम श्रमकर्ता श्रमणों की श्रम शिक्षा। समझें हम जीवन विज्ञान । जीवन विज्ञान की ओर आचार्य महाप्रज्ञ कहते हैं - नैतिकता आदि शब्द विवाद के विषय बन गये हैं। इसलिए नया शब्द ढूँढ़ना चाहिए जो आज के मानस को स्पर्श कर सके। पर कोई प्रतिक्रिया पैदा न करे। इन दृष्टियों से सोचने पर एक नया नाम जंचा - 'जीवन विज्ञान।' इसकी प्रक्रिया का किसी धर्म विशेष से सम्बन्ध नहीं है। इसका सम्बन्ध जीवन से है। यह नाम समग्र मानव का प्रतिनिधित्व करता है - व्यापक है और असाम्प्रदायिक। यह नैतिक शिक्षा योग शिक्षा सबको समाहित करता है। जीवन विज्ञान के इस लोक शिक्षा स्वरूप को वरदायी आशीर्वचन मिला गणाधिपति तुलसी गणि का। दो प्रेरक प्रसंग डॉ० डी० एस० कोठारी- गणाधिपति तुलसी और आचार्य महाप्रज्ञ - जैन मनीषियों की इस लोक शिक्षा त्रिवेणी को नमन करने का - जानकीनारायण श्रीमाली मन होता है। आज कि जैन दृष्टि सम्पन्न आज की शिक्षा सृष्टि का समूचा हियै री आँख : आचार्य द्रोण अपने १०५ शिष्यों को ज्ञान-ब्रह्माण्ड हमारी समझ में बैठे और पैठे, इसी में देश का भला है। शब्दबेधी तीर चलाना सीखा रहे थे। सब प्रयत्न निष्फल हुए। शिष्य जीवन विज्ञान शिक्षा की द्वादश श्रेणियाँ निराश हो गए। गुरू द्रोण भी चिन्तित हो उठे। एक रात्रि को गुरू १) ध्वनि २) संकल्प ३) सम्यक् व्यायाम ४) सम्यक् श्वास और शिष्य साथ-साथ पंक्तिबद्ध बैठकर भोजन कर रहे थे। सहसा ५) कायोत्सर्ग ६) ध्यान ७) शरीर शिक्षा ८) मानसिक शिक्षा ९) गुरू द्रोण ने अपने हाथ से मशाल बुझा दी। कक्ष में अंधेरा छा गया। भावात्मक शिक्षा १० मूल्यबोध ११) अहिंसा १२) शरीर विज्ञान। सेवकों ने पुन: मशाल जलाई। सभी शिष्यों की थालियाँ खाली थीं। भारत देश के कवि प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी के गुरूजी ने पूछा-अरे! अंधेरे में भोजन कैसे कर लिया? शिष्यों ने 'जय विज्ञान' उद्घोष का यह अभिनव जीवन-विज्ञान द्वादशांग- कहा-गुरूदेव! नित्य अभ्यास और सही अनुमान से। भारतीय शिक्षा जगत को जैन जगत की अप्रतिम देन है। बातों से नहीं। आचार्य ने कहा-भोजन एक बार भी नाक-कान या आँख में कारज सरेगा काम से। सच कहा गया है न नहीं गया। हर बार मुँह में गया। इसी प्रकार नित्य अभ्यास और सही 'जानन्ति तत्त्वं प्रभवन्ति कर्तुम।' अनुमान से शब्दबेधी तीर चला सकते हो। शिष्यों के हृदय में नवीन जो जानने की शक्ति रखता है वह कर्म करने की शक्ति भी ज्ञान का आलोक भर गया। वे कुशल धनुर्धर बन गए। धारे। स्पर्धा : महाभारत युद्ध। सेनापति भीष्म नित्य पांडवपक्ष के सूर्यसदन, गुप्तेश्वर नगर दस हजार योद्धाओं का वध कर रहे थे। पांडव पक्ष की युद्धपरिषद उदयपुर (राज.) में अर्जुन और श्रीकृष्ण ने अप्रतिहत गति भीष्म को रोकने का वचन दिया। भीष्म-अर्जुन युद्ध प्रारंभ हुआ। सूर्य तपने लगा। भीष्म की गति रुक गई थी। वे एक भी पांडव योद्धा नहीं मार पाए। हर्षित अर्जुन ने कुछ क्षणों के लिए पसीना पोंछा और हर्षपूर्वक मित्र कृष्ण को निहारा। कृष्ण ने कहा-'हे पार्थ! इन कुछ क्षणों में भीष्म ने दो हजार योद्धा मार दिए है। तुम ५ बार पसीना पोंछोगे-विश्रांति लोगे और भीष्म हमारे दस हजार योद्धा मार डालेंगे।' विवेकवान, अविश्रांत श्रम, अनथक उत्साह का सामर्थ्य ही विजयश्री दिलाता है। ब्रह्मपुरी चौक, बीकानेर (राज०) विद्वत खण्ड/८२ शिक्षा-एक यशस्वी दशक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012030
Book TitleJain Vidyalay Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhupraj Jain
PublisherJain Vidyalaya Calcutta
Publication Year2002
Total Pages326
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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