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________________ अर्थपूर्ण होता है - इसी संदर्भ में बाबा तुलसीदास की पंक्तियाँ याद आ रही हैं -- "गुरु सिस अंध-बधिर का लेखा एक न सुनइ एक नहिं देखा ।" नोट्स जीरोक्स करवाने के चलन ने विद्यार्थियों का अपकार ही किया है। जीरोक्स के माध्यम से अपना समय बचाकर कुछ ही क्षणों में नोट्स की प्रतिलिपियाँ (कॉपीज़) - ज्ञान के पन्ने संचित कर विद्यार्थी बहुत प्रसन्न होते हैं। पहले अपने हाथ से उतारने के कारण विद्यार्थियों को विषय-वस्तु की एक झलक मिल जाती थी । लिखते रहने के अभ्यास के कारण उनके लिखने की गति भी तीव्र हो जाती थी। अक्षरों को सुडौल बनाने के अवसर भी उन्हें सहज सुलभ हो जाते थे, वर्तनी की अशुद्धियाँ भी कम होती थीं। इधर वर्तनी की अशुद्धियों की बाढ़ आ गयी है, चाहे लिखनेवाला ऑनर्स का विद्यार्थी ही क्यों न हो। लिखने की गति धीमी होने के कारण अक्सर विद्यार्थी प्रश्नपत्र के सम्पूर्ण उत्तर नहीं लिख पाते । अनियमित परीक्षाएँ, वर्ष- दर वर्ष मनमाने परीक्षकों का चुनाव, मनचाहे स्कूल-कॉलेजों की उत्तर पुस्तिकाओं के प्रति पक्षपात आदि तरह-तरह के आरोपों से घिरी परीक्षा-प्रणाली आडम्बर बनकर रह गयी है। अधिकांश परीक्षा-कक्षों में विद्यार्थियों को उन्मुक्त साँस लेने, हाथ-पांव-गर्दन हिलाने एवं लघुशंका निवारण की बेलगाम लम्बी छूट सिद्ध करती है कि स्वतंत्रता उनका जन्मसिद्ध अधिकार है। परीक्षा स्थलों में सरस्वती के प्रताप में इतनी वृद्धि होती है कि शौचालय तक विद्यामंदिरों में परिणत हो जाते हैं और चोर दरवाजे से प्रवेश कर लक्ष्मी भी विराजने लगती है। आलम यह है कि किसी-किसी परीक्षा-कक्ष में परीक्षार्थियों की आँखों से बरसते तीरों को फौलादी सीने पर झेलता निरीक्षक रणभूमि में डटा रहता है। उसकी शहादत का आखिर क्या मोल है ? जो डिग्रियों के रास्ते में आयेगा, वह चूर-चूर हो जायेगा ! धीरे-धीरे सुस्ताता, कछुआ चाल से चलता परीक्षा तंत्र लम्बे अंतराल के पश्चात् परीक्षकों तक पहुँचता है। कुछ को इस दायित्व से मुक्त होने की खुली छूट है तो कुछं पर अतिरिक्त बोझ लाद दिया जाता है। कभी परीक्षकों के निकम्मेपन के प्रशस्तिपत्र पढ़े जाते हैं तो कभी आनन-फानन उनसे माँग की जाती है कि इतनी पुस्तिकाएँ इतने दिनों में जाँच कर दो-गोया परीक्षक हाड़-माँस का पुतला न होकर मशीन हो । स्विच दबाया और नियत समय में फैक्ट्री में इतना प्रोडक्शन तैयार ! आजकल अधिकारीगणों की जागरूकता के चर्चे हैं। परीक्षकों की जन्मकुंडलियाँ पढ़ी जा रही हैं और आचार-संहिताएँ घोषित की जा रही हैं। आशा की जानी चाहिये कि इस समुद्र मंथन के बेहतर परिणाम होंगे। शिक्षा - एक यशस्वी दशक Jain Education International घरों परिवारों में परीक्षा उन्माद का रूप धारण कर चुकीं है। बच्चा और सारा परिवार एक तनाव की स्थिति में जीते हैं। त्योहारों पर पहरे बैठा दिये जाते हैं। माँ-बाप, घर-दफ्तर के जरूरी कामों को तिलांजलि दे परीक्षा-स्थलों पर योगासन की मुद्रा में बैठे-खड़े रहते हैं। हमारे शास्त्रों में कहा भी तो गया है- " एकै साधै सब सधै ।" बाह्य परीक्षा के साथ आंतरिक मूल्यांकन (इन्टरनल एसेसमेन्ट) एवं वार्षिक परीक्षा के साथ सतत मूल्यांकन के प्रयोग भी शुरू किये गये हैं। आंतरिक मूल्यांकन के लिए स्कूलों में हर विषय में एक 'प्रोजेक्ट' बनाने का प्रावधान किया गया है। इन प्रोजेक्ट फाइलों के लिये सामग्री जुटाने एवं तैयार करने में बच्चों साथ माँ-बाप भी जुट जाते हैं और कभी-कभी तो विषय के 'प्रोफेशनल' को मोटी रकम देकर फाइलें तैयार करवायी जाती हैं। परिणामस्वरूप ऐसे प्रयास अपने उद्देश्यों तक पहुँचने में असमर्थ रहते हैं, विद्यार्थी यथार्थ ज्ञान ( प्रैक्टिकल नॉलेज) को जीवन में उतार नहीं पाते। शिक्षक की छवि मैली हुई है । कर्त्तव्य पर अधिकार हावी हो गया है । राजनीति और व्यक्तिगत बैर भाव से संचालित होनेवाले शिक्षक विद्यार्थियों के कल्याण को भूल कर अपनी गोटियाँ बैठाने में मशगुल रहते हैं। उनका व्यवहार विद्यार्थियों की मौलिकता और रचनात्मकता को कुंठित कर देता है। कुछ शिक्षक विद्यार्थियों से दूरी बनाये रखना श्रेयस्कर समझते हैं। उनसे विद्यार्थी इतने आतंकित रहते हैं कि न्यायपूर्ण बात कहने में भी हकलाते हैं । जहाँ संवादहीनता होती है, वहाँ दूरियाँ बढ़ती हैं। सीधा-सच्चा-आत्मीय संवाद समस्याओं को सुलझाने में कारगर साबित होता है। नये वेतनमान के साथ शिक्षकों को अनेक नियमों में बाँध दिया गया है। यह ठीक है कि एक मछली तालाब को गंदा करती है, परन्तु शिक्षकों पर तरह-तरह की पाबंदियाँ लगाना उनकी सृजनात्मकता को बंदी बनाना है। मस्तिष्क की उर्वरता - ऊर्जा को प्रशासनिक एवं दफ्तरी कार्यों में खर्च करना न्यायसंगत नहीं कहा जा सकता । पाठ्यक्रमों पर पुनर्विचार के तहत कहीं तो ताजी हवा को प्रवेश मिला है और कहीं नवीनता के बहाने अल्पज्ञतावश जरूरी विषयों को भी बदल दिया गया है। एक ओर संस्कृत अध्ययनअध्यापन की दुर्गति है और दूसरी ओर ज्योतिष विद्या को पढ़ाने के नगाड़े बजाये जा रहे हैं, इतिहास के साथ खिलवाड़ किया जा रहा है । कभी जरूरी एवं नवीन पुस्तकों की खरीद के समय पुस्तकालयों के लिए धन का रोना रोया जाता है और कभी सरकारी अनुदान के तहत पाठ्यक्रम की परिधि के बाहर अवांछित पुस्तकों की भीड़ के कारण पुस्तकालयों में उपयोगी पुस्तकों के लिए स्थान का अभाव विद्वत खण्ड / ३३ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012030
Book TitleJain Vidyalay Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhupraj Jain
PublisherJain Vidyalaya Calcutta
Publication Year2002
Total Pages326
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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