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प्राचार्य निहालचंद जैन
प्रार्थना
डॉ० लारी डोसे ने अपने एक संस्मरण में लिखा कि उसने प्रार्थना की एक अजीब चिकित्सा पद्धति का अनुभव किया। उन्होंने अपने प्रशिक्षण समय का जीवन्त वृतांत लिखा, जब वे टेक्सास के थाईलैण्ड मेमोरियल अस्पताल में थे। उन्होंने एक कैन्सर पीड़ित मरीज को अंतिम अवस्था में देखा और उसको यही सलाह दी थी कि उपचार से विराम ले ले क्योंकि उपलब्ध चिकित्सा से कोई लाभ नहीं हो रहा
था।
लेकिन उन्होंने यह भी देखा कि उसके बिस्तर के पास कोई न कोई मित्र बैठा रहता था जो उसके स्वास्थ्य लाभ के लिये प्रार्थना किया करता था। एक वर्ष के पश्चात् जबकि डॉ० लारी को जो वह अस्पताल छोड़ चुके थे, एक पत्र मिला कि क्या आप अपने पुराने मरीज से मिलना चाहेंगे ?
डॉ० लारी ने लिखा कि मुझे यह जानकर सुखद आश्चर्य हुआ कि वह अब भी जिंदा है और उसके एक्स-रे का निरीक्षण करने पर पाया कि उसके फेफड़े बिल्कुल ठीक थे डॉ० लारी ने जब मेडिकल कॉलेज के दो प्रोफेसरों को उक्त घटना सुनाई, तो उन्हें इस विलक्षण घटना पर विश्वास नहीं हुआ।
बाद में १९८० में जब डॉ० लारी मुख्य कार्यकारी अधिकारी बने, उसने यह निष्कर्ष दिये कि प्रार्थना से विभिन्न प्रकार के महत्वपूर्ण शारीरिक परिवर्तन घटित होते हैं।
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हार्वर्ड मेडिकल स्कूल में डॉ० हर्बट बेनसन ऐसे अनुसंधानकर्ता थे, जिन्होंने प्रार्थना एवं ध्यान से स्वास्थ्य के संबंध में अध्ययन किया। विभिन्न धर्मों की प्रार्थना से शरीर में एक समान स्वास्थ्यवर्धक परिवर्तन होते हैं। शरीर में होने वाली 'व्याधि' का मुख्य कारण हमारी मानसिक सोच है। जो 'आधि' के नाम से जानी जाती है। हमारी सोच मनोविकारों / मनोरोगों का कारण बनती है। मनोरोग शरीर रोग के साथ वैसा ही तादात्म्य रखता है, जैसा दूध पानी के साथ।
प्रार्थना-मन की बीमारी का सही इलाज है अतः प्रार्थना से शरीर बीमारी को भी लाभ पहुँचता है। प्रार्थना में मनोविकारों को दूर करने की बड़ी शक्ति निहित होती है। जब ५० वर्ष से ऊपर की आयु का व्यक्ति तनाव से गुजर रहा हो तो यह उसके शरीर के स्वास्थ्य को प्रभावित करता है और प्रायः डायबिटीज बढ़ने, कमर दर्द होने, भूख कम लगने, आँख की ज्योति प्रभावित होने आदि में प्रगट होता है। इन पंक्तियों के लेखक का यह वैयक्तिक अनुभव है कि तनाव का कारण दूर होते ही कमर दर्द ५० प्रतिशत ठीक हो गया। प्रार्थना से हम एक अदृश्य शक्ति से जुड़ते हैं। उस शक्ति को हम अपने चारों ओर होना महसूस करते हैं।
प्रार्थना में यदि गहरे उतरने लगे तो वह सामायिक का स्वरूप लेने लगता है। 'सामायिक' का अर्थ है 'स्व' में स्थित होना । प्रार्थना एक मार्ग है- 'स्व' की ओर जाने का ।
प्रार्थना से हम उस लोकोत्तर व्यक्तित्व से जुड़ते हैं, जिसकी भावरचना को हमने अपनी प्रार्थना का आधार बनाया है। क्या भक्तामर स्तोत्र का उच्चारण करते हुए हम वैसी ही ध्वनि तरंगों का निष्पादन नहीं करने लगते हैं जो आचार्य मानतुंग ने सृजित की होगी। उस समय हम आचार्य मानतुंग से अपना तादात्म्य स्थापित कर लेते हैं।
प्रार्थना का असर लेजर किरणों की भाँति, भीतर तक होता है, बहुत तीव्र घनत्व से युक्त । जैसे इन्जेक्शन की दवा, धमनियों / नसों में दौड़कर हमें कुछ ही क्षणों में अपना प्रभाव दिखाने लगती है, वही बात भावात्मक परिवर्तन के लिये प्रार्थना करती है।
गहरे में उतरती प्रार्थना सामायिक है। मौन प्रार्थना, जब ज्ञानात्मक / प्रज्ञानिष्ठ बनती है तो वह सामायिक को उपलब्ध होती है। हमारी नई पीढ़ी सामायिक और ध्यान के महत्व को भूल कर इससे दूर होती जा रही है अपने में, अपने भीतर में लौटने की सामायिक एक जीवन्त प्रक्रिया है। ध्यान में जाने से पहले 'सामायिक' में हुआ जाता है। ध्यानस्थ होने की पूर्व तैयारी है सामायिक ।
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वस्तुतः ध्यान किसी मंत्र या पद पर अपने चित्त को केन्द्रित कर बाहरी उपयोग को समेटकर उसे अन्तःकरण की ओर उन्मुख करना है बाहर की ओर बहती जीवन- ऊर्जा हमारे लिये किसी काम की नहीं
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विद्वत खण्ड ९९
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