SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 279
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ होती सामायिक और ध्यान के माध्यम से इस ऊर्जा को संकेन्द्रित करके एक बिंदु पर फोकस करते हैं। जैसे फोकस की हुई प्रकाश किरणें (उत्तम लेंस के माध्यम से) आग उत्पन्न कर देती है ऐसी ध्यान की अवस्था में हमारी शक्ति का केन्द्रीकरण होता है। ध्यान है हमारी प्रवृत्तियों का संकुचन। ध्यान है- आत्मा के उपदेशों के फैलाव का एक अभिनव प्रयोग । जैसे-जैसे कायिक/ वाचनिक/मानसिक (भावात्मक) वृत्तियों का संकुचन होने लगता है, आत्मा का विकास क्षेत्र, उसकी आभा मण्डल का परिक्षेत्र उतना ही विस्तारित होने लगता है आत्मा का विकास ही जीवन का प्रकाश है। अतः ध्यान - जीवन का प्रकाश है। ध्यान जैन दर्शन की आत्मा है। हमें मंदिर ध्यानस्थ होने के लिये जाना चाहिये प्रतिमाओं के दर्शन से एक ही सार्वत्रिक संदेश मिलता है वह है 'ध्यान का रसायन' जो जीवन को अमृत बना देता है। मुनि श्री प्रज्ञासागरजी अपनी छोटी एवं महत्वपूर्ण पुस्तक 'सुबह को किताब' में ध्यान के संदर्भ में लिखते हुए कहते हैं- "ध्यान एक अन्तर्यात्रा है। अपनी बहिर्मुखी इन्द्रियों को अन्तर्मुखी बनाने का एक सरलतम एवं सफलतम प्रयोग है अपनी सोची हुई चेतना को जागृत करने की एक विधि है अपनी आत्मशक्ति को प्राप्त करने का एक उपाय है। अस्तु!" 1 आइये हम प्रार्थना, सामायिक ध्यान के माध्यम से जीवन की हर सुबह को खुशबुओं से भरें और हर प्रभात को सुप्रभात बनायें। बौना (म०प्र०) विद्वत खण्ड / १०० Jain Education International बाहुबल बाहुबल अर्थात् अपनी भुजा का बल यह अर्थ यहीं नहीं करना है; क्योंकि बाहुबल नाम के महापुरुष का यह एक छोटा परंतु अद्भुत चरित्र है। ऋषभदेवजी भगवान सर्वसंग का परित्याग करके भरत और बाहुबल नाम के अपने दो पुत्रों को राज्य सौंप कर विहार करते थे । तब भरतेश्वर चक्रवर्ती हुआ । आयुधरना में चक्र की उत्पत्ति होने के बाद उसने प्रत्येक राज्य पर अपना आम्नाय स्थापित किया और छ: खंड की प्रभुता प्राप्त की मात्र बाहुबल ने ही यह प्रभुता अंगीकार नहीं की। इससे परिणाम में भरतेश्वर और बाहुबल के बीन युद्ध शुरू हुआ बहुत समय तक भरतेश्वर या बाहुबल इन दोनों से एक भी पीछे नहीं हटा, तब क्रोधावेश में आकर भरतेश्वर ने बाहुबल परचक्र छोड़ा | एक वीर्य से उत्पन्न हुए भाई पर वह चक्र प्रभाव नहीं कर सकता, इस नियम से वह चक्र फिरकर वापस भरतेश्वर के हाथ में आया। भरत के चक्र छोड़ने से बाहुबल को बहुत क्रोध आया। उसने महाबलवत्तर मुष्टि उठायी। तत्काल वहाँ उसकी भावना का स्वरूप बदला। उसने विचार किया, "मैं यह बहुत निंदनीय कर्म करता हूँ। इसका परिणाम कैसा दुःखदायक है। भले भरतेश्वर राज्य भोगे । व्यर्थ ही परस्पर का नाश किसलिए करना ? यह मुष्टि मारने योग्य नहीं है तथा उठायी है तो इसे अब पीछे हटाना भी योग्य नहीं है।" यों कहकर उसने पंचमुष्टि केशलुंचन किया; और वहाँ से मुनित्वभाव से चल निकला। उसने, भगवान आदीश्वर जहाँ अठानवें दीक्षित पुत्रों और आर्यआर्यों के साथ विहार करते थे, वहाँ जाने की इच्छा की; परंतु मन में मान आया "वह मैं जाऊँगा तो अपने से छोटे अठानवें भाइयों को वंदन करना पड़ेगा। इसलिए वहाँ तो जाना योग्य नहीं।" फिर वन में वह एकाग्र ध्यान में रहा। धीरे-धीरे बारह मास हो गये। महातप से काया हड्डियों का ढाँचा हो गयी। वह सूखे पेड़ जैसा दीखने लगा, परंतु जब तक मान का अंकुर उसके अंत:करण से हटा न था तब तक उसने सिद्धि नहीं पायी। ब्राह्मी और सुंदरी ने आकर उसे उपदेश दिया, "आर्य वीर ! अब मदोन्मुख हाथी से उतरिये, इसके कारण तो बहुत सहन किया।" उनके इन वचनों से बाहुबल विचार में पड़ा। विचार करते-करते उसे भान हुआ, "सत्य है । मैं मानरूपी मदोन्मत्त हाथी से अभी कहाँ उतरा हूँ? अब इससे उतरना ही मंगलकारक है।" ऐसा कहकर उसने वंदन करने के लिए कदम उठाया कि वह अनुपम दिव्य कैवल्यकमला को प्राप्त हुआ। For Private & Personal Use Only शिक्षा - एक यशस्वी दशक www.jainelibrary.org
SR No.012030
Book TitleJain Vidyalay Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhupraj Jain
PublisherJain Vidyalaya Calcutta
Publication Year2002
Total Pages326
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy