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________________ 'यश:पत:' नामक एक हाथी के सहयोग से सभी दरवाजों को प्रभावित था। 'प्रबंध चिंतामणि' के अनुसार उसने सभी दर्शनों की ध्वस्त कर दिया। यशोवर्मन धार नगरी से पलायन कर गया...।४० शाखाओं को मान्यता प्रदान कर सम्मानित किया था। 'सर्वधर्म मेरुतुंग ने धार विजय की इस घटना का वर्णन कुछ इस प्रकार से समभाव' में उसका अटूट विश्वास था। जहाँ उसने 'सोमनाथ' की किया है- 'राजा जयसिंह ने मालवा राज्य को विजित करने का तीर्थ यात्रा की थी वहीं जैन के दो धार्मिक स्थलों 'रेवतक' तथा 'अभियान प्रारम्भ किया। यह लड़ाई १२ वर्षों तक जारी रही। परन्तु 'शत्रुञ्जय' की तीर्थ यात्राएँ भी सम्पन्न की थी। 'देव्याश्रय काव्य' के जयसिंह धार के मजबूत किले पर अपना कब्जा नहीं जमा सका। पंद्रहवें खंड से विदित होता है कि जयसिंह सिद्धराज ने सरस्वती नदी जयसिंह वहाँ से लौट जाना चाहता था कि तभी मंत्री मुंजल ने किले के किनारे सिद्धपुरा में अन्तिम अर्हत का मंदिर बनवाया था।" वहाँ को विध्वंस करने की एक योजना बनाई। राजा को इस तरकीब के से वह सोमनाथ की पैदल यात्रा पर निकला। सोमनाथ से जयसिंह बारे में सूचित किया गया। उसने अपनी सेना को दक्षिण दरवाजे की रेवतक' पहाड़ पर गया तथा बाइसवें तीर्थंकर 'नेमिनाथ' की आदर ओर लगाया तथा महंत शामला द्वारा निर्देशित एक विशालकाय सहित पूजा की।४६ तत्पश्चात् वह 'शत्रुञ्जय' गया तथा वहाँ पर उसने हाथी 'यश: पतल' की मदद से लोहे की मजबूत काँटेदार छडों से 'नभेय' प्रथम तीर्थंकर की पूजा अर्चना की।४७ शत्रुजय के पास उसने निर्मित दरवाजे को तोड़ने में सफलता प्राप्त की। तदुपरान्त सभी 'सिंहपुर' (अर्वाचीन-सिहोर) नामक एक नगरी बसाई तथा अन्य गाँवों दरवाजों को खोल दिया गया। किन्तु इस प्रयास में उक्त हाथी सहित इसे भी दान में दे दिया। ४८ वि.सं. ११९१ के एक जैन ग्रंथ घटनास्थल पर ही वीरगति को प्राप्त कर गया। इस घटना से द्रवित के अनुसार, जैन धर्म से प्रभावित होकर उसने एकादशी वगैरह होकर उस हाथी की स्मृति में राजाज्ञा से गणपति के एक भव्य मंदिर कतिपय दिवसों पर जीवहत्या को बंद करा दिया था।४९ का निर्माण ग्राम वाडसर में करवाया गया। जयसिंह ने यशोवर्मन जयसिंह द्वारा सौराष्ट्र के प्रबंधन हेतु 'सज्जन' को को बंदी बनाया. धार में अपना प्रभत्व कायम किया और अंत में महामण्डलेश्वर अथवा राज्यपाल नियुक्त किया गया था। यह पाटण की ओर लौट गया....... ४१ उपर्यक्त वर्णन से हम इस सज्जन जैन धर्म का परम भक्त था। 'विविध तीर्थ कल्प' के संभावना को नहीं नकार सकते कि जयसिंह के सिक्कों में इसी हाथी अनुसार सज्जन ने वि०सं० ११८५ (ई० ११२९) में गिरनार को दर्शाया गया था जो राजा को अत्यधिक प्रिय था। इस सम्भावना के पहाड़ पर 'नेमिनाथ भगवान' का एक मंदिर बनवाया था।" को इस तथ्य से और भी बल मिलता है कि ये सिक्के मालवा क्षेत्र 'रेवत गिरीरासो' भी इस तथ्य की पुष्टि करता है।५१ 'प्रभावक तथा विशेषकर धार अंचल में बहलता से पाए जाते हैं। तत्कालीन चरित' से ज्ञात होता है कि सौराष्ट्र नौ वर्षों तक सज्जन के अधीन समय के अन्य सिक्कों के बारे में हमें जैन ग्रन्थों से जानकारी तो रहा।५२ प्रबन्ध चिन्तामणि के मतानुसार सज्जन ने तीन वर्षों की मिलती है परन्तु जयसिंह के अन्य सिक्के अभी तक प्रकाश में नहीं राजकीय आय को इस मन्दिर के निर्माण में व्यय किया था।५३ बाद राजका आए हैं। हेमचन्द्र ने अपने ग्रंथ 'देव्याश्रय काव्य' में कतिपय सिक्कों । में यही सज्जन 'कुमारपाल' के समय में भी 'दण्डनायक' नियुक्त का उल्लेख किया है। छोटे सिक्कों में उन्होंने 'सुरपा' नामक सिक्के किए गए। इसका प्रमाण हमें दिगम्बर लेखक रामकीर्ति द्वारा का उल्लेख किया है।४२ उनके अनुसार एक पुष्पहार की कीमत दो हो सीतोगढ़ में लिखित काव्य से मिलता है।५४ सा सुरपा के बराबर थी। उन्होंने 'प्रस्थ' और 'भंगिका' नामक दो अन्य एक हस्तलिखित जैन ग्रन्थ के अनुसार वि०सं० ११७९ सिक्कों का भी उल्लेख किया है। 'भंगिका' अनुपान में आधे रुपये। (ई० ११२३) में 'आशुका' को अपना मुख्यमंत्री बनाया था। वह के बराबर था।४३ महंगी स्वर्ण मुद्राओं के विषय में भी जैन ग्रंथों ने जैनधर्म का अनुयायी था। जयसिंह ने उन्हीं के परामर्श से शत्रुञ्जय प्रकाश डाला है। एक स्वर्ण मुद्रा तो २० अथवा ४० रुपये के की तीर्थ यात्रा सम्पन्न की थी।५५ प्रभावक चरित' और 'मुद्रिता बराबर थी। लगता है वह मात्रा में अत्यधिक वजन की होगी। अन्य कु: कुमुद चंद्र' के अनुसार आशुका दिगम्बर मुनि कुमुदचन्द्र और स्वर्ण मुद्राओं में 'निस्क', 'विस्ट' और 'पाल' का नाम प्रमुख है। - देवसूरि के शास्त्रार्थ में भी उपस्थित रहे थे।५६ प्रत्येक सेना का भी अपना मांगलिक चिह्न युक्त ध्वज होता था। वि०सं० ११९१ (ई० ११३५) के एक ग्रंथ से जानकारी जयसिंह सिद्धराज के ध्वज में 'ताम्रचूड़ा' नामक सिक्कों में कहीं मिलती है कि महात्मा गांगला जयसिंह के राज्य में राजकीय कार्यो के कर्ता थे। ये भी जैनधर्म के अनुयायी थे तथा कुमुदचंद्र और नहीं मुद्रित किया गया। यद्यपि जयसिंह का पारिवारिक धर्म शैव था किन्तु उसका अन्य देवसूरि के मध्य जो शास्त्रार्थ हुआ उसमें वे भी उपस्थित थे।५७ यह धर्मों के प्रति भी समान रुझान था। जैन धर्म से तो वह अत्यधिक ही शास्त्रार्थ वि०सं० १०८१ में हुआ था और उस समय गांगाल न्याय्यता अभिलेखन के प्रभारी थे। शिक्षा-एक यशस्वी दशक विद्वत खण्ड/५३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012030
Book TitleJain Vidyalay Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhupraj Jain
PublisherJain Vidyalaya Calcutta
Publication Year2002
Total Pages326
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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