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________________ सिद्धराज जयसिंह ने पाटण को ज्ञान का मंदिर बना दिया था। उसने 'बहूलोढ़ा' नामक एक कर' भी अपनी प्रजा की भलाई के जैन साधुओं ने जिस धार्मिक उत्साह से अपने हस्तलिखित साहित्य लिए हटा दिया। इससे राज्य को ७२ लाख रुपये का राजस्व प्राप्त होता को प्रणीत एवं संग्रहीत किया वह अनहिलपट्टन की बौद्धिक था। जयसिंह अपनी प्रजा की पुकार को हमेशा सुनता था जो उसकी त्वरितता की छवि को और भी अधिक उजागर करती है। अच्छी शासन व्यवस्था का परिचायक है। नगर रक्षा के लिए उसने हेमचन्द्राचार्य ने भी पाटण के धार्मिक और शैक्षणिक जीवन के बारे कोतवाल अथवा नगर संरक्षक का पद बनाया था। अनहिल पुरा के में अपनी कृतियों में प्रकाश डाला है। जैनधर्म के चैत्र गच्छीय महान तत्कालीन कोतवाल जैन अनुयायी जयदेव थे। इसी प्रकार 'वाग् संत हेमचन्द्र का बहुत ही गहरा असर जयसिंह सिद्धराज पर था। भलंकार' के रचियता जैन वागभट्ट भी जयसिंह के राज्य मंत्री थे।६१ सर्वप्रथम वे राजपुरोहित बनाए गए। तत्पश्चात् उन्हें राजकीय जयसिंह सिद्धराज अपने जीवन के उत्तरार्द्ध काल में जैनधर्म से इतिहासकार बनाया गया। वे जयसिंह के नैतिक एवं धार्मिक इतना प्रभावित हो गया था कि उसने अपने अन्तिम समय में जैन .. मार्गदर्शक भी थे। तत्कालीन समय के राजकीय इतिहास लेखक विधि से समाधि पूर्वक अनशन की अवस्था में पाण्डित्यपूर्ण मृत्यु को होने के नाते हेमचन्द्र ने जयसिंह के समृद्धशाली राज्य के विषय में वरण किया। श्रीचंद्रसरि कृत प्राकृत जैन रचना 'मुनि सुव्रत स्वामी अपने 'देव्याश्रय' काव्य में विस्तृत जानकारी प्रस्तुत की है। इस चरित'के प्रत्यक्षदर्शी वर्णन के अनुसार भी जयसिंह ने संथारा करके साहित्यिक प्रबन्ध में जयसिंह और हेमचन्द्राचार्य के आपसी मैत्री उपवास में मत्य: उपवास में मृत्यु का वरण किया।६२ सम्बन्धों के बारे में भी बहुत सारे उपाख्यानों को उद्धृत किया गया है। उन्होंने राजा जयसिंह के कहने पर बहुत सारे ग्रंथों का सृजन सन्दर्भ किया जिसमें 'सिद्ध हेम व्याकरण', 'कुमार पाल चरित'. प्राकत १. देव्याश्रयकाव्य, खण्डकाव्य प्रथम, गाथा ४ : पुरं श्रिया सदाश्लिष्टं 'देव्याश्रय महा काव्य', 'लघवरहन नीति शास्त्र', प्राकृत 'वृहद् नाम्नाणहिलपाटकम् । अर्हन नीति शास्त्र', 'चंगेनुशासन' आदि प्रमुख हैं। २. वही, खण्ड काव्य, नवम, गाथा ९९-१०० और १५३ ३. सिंघी जैन ग्रन्थमाला, पुरातन प्रबन्ध संग्रह, पृष्ठ ३५ इस प्रकार 'वागभट्टलंकार' के जैन साहित्यकार 'वागभट्ट' भी "अष्ट वार्षिक एव स सान्तमंत्रिणा गुण श्रेणिं नीतः।" राजा के विशेष कृपापात्र थे। इस ग्रंथ के टीकाकार वागभट्ट को सोम ४. वही, प्रबन्ध चिन्तामणि, पृष्ठ ५५ का पुत्र बतलाते हैं। 'प्रभावक चरित' के अनुसार उन्होंने एक जैन "सं० ११५० वर्षे पौष वदि ३ रानौ श्रवणनक्षत्रे वृषलग्ने श्री मन्दिर भी वि०सं० ११७८ में बनवाया था।५८ सिद्धराजस्य पट्टाभिषेकः" जयमंगलाचार्य जो 'कवि शिक्षा' के रचयिता थे तथा वर्धमान ५. वही, पृष्ठ ७६ सूरि जिन्होंने व्याकरण पर 'गण रतन महोदधि' नामक ग्रन्थ का “सं० ११५० पूर्वश्री सिद्धराजजयसिंहदेवेन वर्ष ४९ राज्यं कृतम्।" प्रणयन किया था ऐसे जैन साहित्यकार हए हैं जो जयसिंह के ६. 'जैन साहित्य संशोधक,' खंड द्वय, सर्ग ४, पृष्ठ ९ राज्यकाल में फलवित हुए। ७, आइने अकबरी, ब्लोचमेन एवं जनारेट द्वारा अनुवादित, भाग-२, जैनधर्म के सम्पर्क एवं प्रभाव से जयसिंह के हृदय में करुणा पृष्ठ २६० ८. 'एपिग्राफिया इंडिका', खण्ड ११, पृष्ठ ३२-३३ का सागर आलोड़ित होने लगा था और यही कारण रहा कि उसने ९. सिंघी जैन ग्रन्थमाला, प्रबन्ध चिन्तामणि, पृष्ठ ५५ युद्ध में भी प्रतिपक्षिय राजाओं को आक्रान्त करने के पश्चात् भी "स्वयं तु आशापल्ली नवासिनमाशाभिधानं भिल्लम भिषेणयन्... रिहा ही नहीं किया वरन् अपनी पुत्रियों के संग विवाह भी करवाया। कर्णावलीपुरं निवेश्य स्वयं तत्र राज्य चकार...'' अजमेर के राजा अर्णोराज इसका ज्वलन्त उदाहरण है। युद्ध में १०.'डायनेस्टिक हिस्ट्री ऑफ नॉरदर्न इंडिया, भाग २, लेखक हराकर भी उसने अपनी पुत्री का विवाह उसके साथ करवा एच०सी० राय, कलकत्ता, पृष्ठ ९६६.११. वही दिया।५९ पृथ्वीराज विजय के अनुसार उसकी पुत्री का नाम १२. एपिग्राफिया इंडिका' खण्ड ९, पृष्ठ ७६-७७, सर्ग २६ कंचनदेवी था। इसी प्रकार 'प्रबंध चिन्तामणि' से हमें जानकारी "श्री आशाराजनामा समजनि वसुधानायकस्तम्य बन्धुः । मिलती है कि उसने युद्ध में पराजित किए हुए सपादलक्ष के साहाय्यं मालवानां भुवि यदसि कृतं वीक्ष्यसिद्धाधिराजः ।।'' आनाका राजा को न केवल सपादलक्ष ही लौटा दिया अपित लाखों १३. 'एपिग्राफिया इंडिका', खण्ड १, पृष्ठ २९३, उद्धरण ५ (२) १४. सिंधी जैन ग्रन्थमाला, जैन पुस्तक प्रशस्ति-'संग्ह' पृष्ठ १०१ रुपये भी साथ में दिए।६० . १५. वही, पृष्ठ ६५ वि०सं० ११९९ में किराडू के परमार राजा सोमेस्वर की। १६. 'पुरातत्व (गुजराती)', खण्ड ४, पृष्ठ ६७ सहायता कर जयसिंह ने उसे अपना खोया राज्य पुनः दिलवाया। "अजयत् सिद्धासौराष्ट्रन..." विद्वत खण्ड/५४ शिक्षा-एक यशस्वी दशक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012030
Book TitleJain Vidyalay Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhupraj Jain
PublisherJain Vidyalaya Calcutta
Publication Year2002
Total Pages326
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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