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________________ जीवन सत्य से परिचित शिक्षा : आनन्दमयी शिक्षा आवश्यक है किन्तु भूखे पेट में आनन्द की उत्पत्ति नहीं हो सकती। इस सत्य से भारतीय दार्शनिक और उपनिषदकार परिचित थे। इसलिए श्रुति ने ब्रह्मज्ञान प्राप्त करने के, शिक्षा प्राप्त करने के जो स्तर तय किए उनमें प्रथम स्तर अन्न था। ब्रह्मज्ञान का प्रथम द्वार अन्न था। अन्न के लोकोत्तर आनंद को वेद के इस वाक्य - अहमन्नमहम्नमहमन्नम - मैं अन्न हूँ, मैं अन्न हूँ, मैं अन्न हूँ- यह उन्मत्त भाव एक कृतार्थ हृदय का उद्गार है। विजय का उद्घोष है। इसलिए कार्लमार्क्स ने भूख के विरुद्ध संघर्ष की जो घोषणा की थी, वह अन्यथा नहीं थी किन्तु संघर्ष का पथ शिक्षा-संस्कार विहीन होने से वह घोषणा सार्थक न हो सकी। भारतीय शिक्षा पद्धति में भूख के विरुद्ध संघर्ष है किन्तु उसका अधिष्ठान आध्यात्मिक है। यह एक आध्यात्मिक संग्राम है जिसे न्यासी भाव (ट्रस्टीशिप प्रिंसिपल) के माध्यम से सम्पत्ति समाज की, के भाव से जीता जाता है। तेन त्यक्तेन भुंजिथा' - त्यागपूर्वक उपयोग करने से यह संघर्ष जीता जा सकेगा। ___ नासिकेत उपाख्यान - वैदिक भारतीय शिक्षा किस प्रकार के बालक तैयार करती थी इसका उदाहरण देना उचित होगा। महर्षि उद्दालक ने विश्वजित नामक यज्ञ के बाद गोदान प्रारंभ किया। उद्दालक के पुत्र नचिकेता ने देखा वे गाएँ झुककर जल नहीं पी सकती थीं, घास नहीं चबा सकती थीं, उनके स्तन दूधरहित थे और इन्द्रियाँ थक चुकी थीं। ऐसी जराजीर्ण गायों के दान से पिता का अपयश होगा। ऐसा सोचकर श्रद्धा से आवेशित नचिकेता ने तीन बार पिता को गोदान से रोका तो क्रुद्ध पिता ने उस कुमार (छोटे बालक) को मृत्यु को दान कर दिया। नचिकेता यमलोक को चल पड़ा और पश्चाताप से दग्ध उसके पिता मूर्छित होकर गिर पड़े। नचिकेता ने बाद में यम से ब्रह्मविद्या का दान प्राप्त किया। यह कहानी विश्व की सर्वाधिक भाषाओं में अनुदित हो चुकी है। इसमें सत्यं वद, धर्म चर के आदर्श को यथार्थ में परिणित करने, कथनी और करनी की एकता को साक्षात् जीवन में साकार करने का प्रसंग है। ऐसी थी हमारी शिक्षा। आधुनिक युग के परिवर्तनों के बीच भी सत्यं वद, धर्म चर के आदर्श पर आधारित शिक्षा एक आदर्श समाज, राष्ट्र और विश्व के निर्माण में समर्थ है। यह दायित्व छात्रों का है। उपनिषद कहते हैं - छात्र ही गुरु है क्योंकि वह प्रश्न करके उत्तर के माध्यम से ज्ञान को प्रकट करवाता है। समवेदना अमेरिका के राष्ट्रपति मि० एब्राहम लिंकन अपने अनेक लोकोत्तर गुणों के कारण काफी प्रसिद्ध हुए हैं। एक बार जाते हुए मार्ग में उन्होंने कीचड़ में एक बीमार सूअर को फँसे हुए देखा। देखकर भी वे रुके नहीं, आगे बढ़े चले गये; किन्तु थोड़ी दूर जाने के बाद वे पुन: वापस लौटे और अपने हाथों से कीचड़ से सूअर को बाहर निकाला। लोगों ने हैरानी से इसका सबब पूछा तो वे बोले, "मैं आवश्यक कार्य में व्यस्त होने के कारण इसे कीचड़ में फँसा हुआ देखकर चला तो गया, पर मेरे हृदय में एक वेदनासी बनी रही, मैने उसी वेदना को दूर करने के लिये इसे निकाला है।' दुखियों को देखकर हमारे हृदय में जो टीस उठती है, उसी को मिटाने के लिए हम दुखियों का दुःख दूर करते हैं। इसमें उपकार और एहसान की बात नहीं है। ब्रह्मपुरी चौक, बीकानेर (राज.) शिक्षा-एक यशस्वी दशक विद्वत खण्ड/९७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012030
Book TitleJain Vidyalay Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhupraj Jain
PublisherJain Vidyalaya Calcutta
Publication Year2002
Total Pages326
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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