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________________ प्रभो! आपको जाना था तो चले जाते, पर इस बालक को पास कैवल्य प्राप्त नहीं हुआ तो इसमें भगवान् का क्या दोष है! इसमें में तो रखते। मैं अबोध बालक की तरह आपका अंचल/चरण भूल या कमी तो मेरी ही होनी चाहिए।" पकड़ कर आपके मार्ग में बाधक नहीं बनता! मैं आपसे केवलज्ञान गौतम का अन्तर्-चिन्तन बढ़ने से प्रशस्त विचारों का प्रवाह बहने की भिक्षा-याचना भी नहीं करता। लगा। वे वीर! महावीर!! का स्मरण करते-करते प्रभु के वीतरागपन . ओ महावीर! क्या आप भूल गये? मैं तो आपके प्रति असीम पर विचार-मन्थन करने लगे "ओ! भगवान् तो निर्मम, नीरागी और अनुराग के कारण "केवल्य" को भी तुच्छ समझता था! फिर भी वीतराग थे। राग-द्वेष के दोष तो उनका स्पर्श भी नहीं कर पाते थे। आपने स्नेह भंग कर मेरे हृदय को टूक-टूक कर डाला! क्या यही ऐसे जगत् के हितकारी वीतराग प्रभु क्या मेरा अहित करने के लिये आपकी प्रभुता थी? अन्त समय में मुझे अपने से दूर कर सकते थे? नहीं, नहीं! प्रभु ने इस प्रकार गौतम के अणु-अणु में से प्रभु के विरह की वेदना जो कुछ किया मेरे कल्याण के लिये ही किया होगा।" का क्रन्दन उठ रहा था। वे स्वयं को भूलकर, प्रभु के नाम पर ही गौतम को स्पष्ट आभास होने लगा-"मेरी यह धारणा ही नि:श्वास भरते हुए अन्तर् वेदना को व्यक्त कर रहे थे। भ्रमपूर्ण थी कि प्रभु की मेरे ऊपर अपार ममता है। प्रभु के ऊपर ऐसी दयनीय एवं करुणस्थिति में भी उनके आँसुओं को पोंछने ममता, आसक्ति, अनुराग दृष्टि तो मैं ही रखता था। मेरा यह प्रेम वाला, भग्न हृदय को आश्वासन देनेवाला और गहन शोक के एकपक्षीय था। यह राग दृष्टि ही मेरे केवली बनने में बाधक बन रही सन्ताप को दूर करनेवाला इस पृथ्वीतल पर आज कोई न था। थी। द्वेष-बुद्धि या राग-दृष्टि के पूर्ण अभाव में ही आत्म-सिद्धि का अनेक आत्माओं का आशा स्तम्भ, अनेक जीवों का उद्धारक और अमृततत्त्व प्रकट होता है, विद्यमानता में कदापि नहीं। मैं स्वयं ही निपुण खिवैया भी आज विषम हताशा के गहन वात्याचक्र में फंस अपनी सिद्धि को रोक रहा था, इसमें भगवान् का क्या दोष है? मेरी गया था। इस राग दृष्टि को दूर करने के लिये ही प्रभु ने अन्त समय में मुझे विचार-परिवर्तन और केवलज्ञान दूर कर, प्रकाश का मार्ग दिखाकर मुझ पर अनुग्रह किया है। किन्तु, भगवान महावीर के प्रति गौतम का अगाध/असीम अनुराग ही मैं अबूझ इस रहस्य को नहीं समझ सका और प्रभु को ही दोष देने उनके केवलज्ञान की प्राप्ति में बाधक बन रहा था। किन्तु, उनकी __ लगा। हे क्षमाश्रमण भगवन्! मेरे इस अपराध/दोष को क्षमा करें।' इस भूल को बतलाने वाला वहाँ न कोई तीर्थंकर था और न कोई पश्चाताप, आत्मनिरीक्षण तथा प्रशस्त शुभ अध्यवसायों की श्रमण या श्रमणी ही इस समय उनके पास उपस्थित थे। इस समय अग्नि में गौतम के मोह, माया, ममता के शेष बन्धन क्षणमात्र में गौतम एकाकी, केवल एकाकी थे। भस्मीभूत हो गये। उनकी आत्मा पूर्ण निर्मल बन गई और उनके वेदनानुभूति जनित विलाप और उपालम्भात्मक आक्रोश उद्गारों का जीवन में केवलज्ञान का दिव्य प्रकाश व्याप्त हो गया। के द्वारा प्रकट हो जाने पर गौतम का मन कुछ शान्त/हलका हुआ। भगवान् महावीर का निर्वाण गौतम स्वामी के केवलज्ञान का अन्तर कुछ स्थिर और स्वस्थ हुआ। सोचने-विचारने और वस्तुस्थिति निमित्त बन गया। समझने की शक्ति प्रकट हुई। सोचने की विचारधारा में परिवर्तन ईस्वी पूर्व ५२७ कार्तिक शुक्ला प्रतिपदा का उषाकाल गौतम आया। अन्तर्मुखी होकर गौतम विचार करने लगे स्वामी के केवलज्ञान से प्रकाशमान हो गया। इसी दिन गौतम स्वामी ___ "अरे! चार ज्ञान और चौदह पूर्वो का धारक तथा महावीर-तीर्थ सर्वज्ञ और सर्वदर्शी बन गये थे। का संवाहक होकर मैं क्या करने लगा! मैं अनगार हूँ, क्या मुझे प्रभु के निर्वाण से जन-समाज अथाह दु:ख सागर में डूब गया था। विलाप करना शोभा देता है? करुणासिन्धु, जगदुद्धारक प्रभु को गौतम के सर्वज्ञ बनने से उसमें अन्तर आया। चतुर्विध संघ अत्यन्त उपालम्भ दूं; क्या मेरे लिये उचित है? अरे! जगदवन्द्य प्रभ की प्रसन्न हुआ और गौतम स्वामी की जय-जयकार करने लगा। कैसी अनिर्वचनीय ममता थी! अरे! प्रभु तो असीम स्नेह के सागर महावीर का निर्वाण और गौतम के ज्ञान का प्रसंग एकरूप थे. क्या वे कभी कठोर बनकर विश्वास भंग कर छोह दे सकते बनकर पवित्र स्मरण के रूप में सर्वदा स्मरणीय बन गया। हैं? कदापि नहीं। अरे! भगवान् ने तो बारम्बार समझाया था-गौतम! , गौतम का निर्वाण प्रत्येक आत्मा स्वयं की साधना के बल पर सिद्धि प्राप्त कर सकती श्रमण भगवान महावीर देहमुक्त सिद्ध हुए और गौतम स्वामी है। दूसरे के बल पर कोई सिद्धि प्राप्त नहीं कर सकता और न कोई देहधारी मुक्तात्मा केवली हुए। महावीर तीर्थ-संस्थापक तीर्थकर थे किसी जीव की साधना के फल को रोक सकता है। मझे अभी तक और गौतम सामान्य जिन बने। शिक्षा-एक यशस्वी दशक विद्वत खण्ड/१२३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012030
Book TitleJain Vidyalay Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhupraj Jain
PublisherJain Vidyalaya Calcutta
Publication Year2002
Total Pages326
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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