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प्रशान्त मिश्र ११ विज्ञान
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मन व कर्म राजर्षि प्रसन्नचन्द्र ध्यान में बैठे हुए थे। वे ऊपर से तो ऐसे दीखते थे मानो आत्मा या परमात्मा में चित्त को लगाए हुए हैं लेकिन वास्तविक बात कुछ और ही थी। राजा श्रेणिक ने प्रसन्नचन्द्र ऋषि को इस प्रकार ध्यान में बैठे देखा। उसे आश्चर्य हुआ कि इस ऋषि का ऐसा प्रगाढ़ ध्यान है! इस प्रकार उनके ध्यान से प्रभावित होकर राजा ने भगवान् से पूछा-प्रभो ! प्रसन्नचन्द्र ऋषि का जैसा ध्यान मैने देखा है वैसा ध्यान किसी दूसरे का नहीं देखा। अगर वे इस समय शरीर का त्याग करें तो किस गति को प्राप्त हों ?
राजा श्रेणिक के प्रश्न के उत्तर में भगवान् ने कहा- अगर वे इस समय काल करें तो सातवें नरक में जाएँ।
यह उत्तर सुनकर श्रेणिक के आश्चर्य का ठिकाना न रहा । उसने पूछा-भगवान् ऐसा क्यों? और जब ऐसे ध्यानी महात्मा सातवें नरक में जाएँगे तो मुझ जैसे पापी की क्या गति होगी ? प्रभो! स्पष्ट रूप से समझाइए कि सब से अधिक वेदना वाले सातवें नरक में वे महात्मा क्यों जाएँगे ?
भगवान् ने गम्भीरतापूर्वक उत्तर दिया- राजन्! अब उनकी भाव स्थिति बदली है। अतएव इस समय काल करें तो सर्वार्थसिद्ध विमान में उत्पन्न हों।
भगवान् की वाणी पर अटल श्रद्धा रखता हुआ भी श्रेणिक राजा गड़बड़ में पड़ गया। उसने सोचा कहीं सर्वार्थसिद्ध विमान और
शिक्षा - एक यशस्वी दशक
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कहाँ सातवाँ नरक। दोनों परस्पर विरोधी दो सिरों पर हैं। एक सांसारिक सुख का सर्वोत्तम ध्यान है और दूसरा दुःख का निकृष्ट स्थान है। एक का जीवन अगले भव में मोक्ष जाना ही है और दूसरे से निकलने वाला अगले भव में मोक्ष जा ही नहीं सकता। क्षण भर में इतना बड़ा भारी परिवर्तन। यह कैसे संभव है ? इस प्रकार सोचकर श्रेणिक ने फिर प्रश्न किया-प्रभो अभी-अभी तो आपने सातवें नरक के लिए कहा था और अब आप सर्वार्थसिद्ध विमान में उत्पन्न होने की बात कहते हैं, आखिर इसका कारण क्या है?
राजा श्रेणिक इस प्रकार प्रश्न कर ही रहा था कि उसी समय देवदुंदुभी का श्रुतिमधुर निर्घोष राजा के कानों में सुनाई दिया। राजा ने पूछा-प्रभो! यह कुंदुभी कहाँ और क्यों बजी है?
भगवान् ने कहा- प्रसन्नचन्द्र ऋषि सर्वज्ञ हो गये हैं।
राजा श्रेणिक चकित रह गया। उसने कल देवाधिदेव! कुछ समझ में नहीं आया। अभी आपने कहा था कि अभी काल करें तो सातवें नरक में जाएँ, फिर कहा कि सर्वार्धसिद्ध विमान में जाएँ और अब आप कहते हैं कि वे सर्वज्ञ हो गए हैं। मैं इसका अर्थ समझना चाहता हूँ और उनका चरित सुनने की इच्छा करता हूँ । मुझ अज्ञ प्राणी पर अनुग्रह कीजिए।
भगवान् ने कहा- राजन् ! प्रसन्नचन्द्र ऋषि पोतनपुर के राजा थे। उन्हें संसार से वैराग्य हो गया और वे संयम ग्रहण करने के लिए उद्यत हुए। मगर उनके सामने एक समस्या खड़ी हुई कि लड़का अभी छोटा है। इसे किसके सहारे छोड़ा जाये ? इस विचार के कारण संयम ग्रहण करने में विलम्ब हो रहा था परन्तु उनके किसी हितैषी ने अथवा उनके अन्तरात्मा ने कहा कि धर्मकार्य में ढ़ोल नहीं करना चाहिए। 'शुभस्य शीघ्रम्' होना चाहिए।
प्रसत्रचन्द्र ने कहा- तुम्हारा कहना ठीक है मुझे संसार से विरक्ति हो गई है और वह विरक्ति ऊपरी नहीं, भीतरी है, क्षणिक नहीं, स्थायी है, मगर बिलम्ब का कारण यह है कि पुत्र छोटा है। उसे किसके भरोसे छोड़ा जाये ?
प्रसन्नचन्द्र के इस कथन का उन्हें उत्तर मिला- अगर आज ही तुम्हें मृत्यु आ घेरे तो छोटे बालक की रक्षा कौन करेगा ? वैराग्य के साथ मोह-ममता के यह विचार शोभा नहीं देते। प्रसत्रचन्द्र राजर्षि को यह कथन ठीक मालूम हुआ और उन्होंने संयम लेने की तैयारी की। संयम लेने से पहले उन्होंने अपने पाँच सौ कार्यकर्ताओं को बुलाकर उनसे कहा- यह बालक छोटा है यह तुम्हारे सहारे है। जब तक यह बड़ा न हो जाये, इसको सँभाल कर रखना। कर्मचारियों ने आश्वासन देते हुए कहा आपकी आज्ञा प्रमाण है। हम राजकुमार की संभाल करेंगे और प्राण भले ही दे देंगे मगर इन्हें किसी प्रकार का कष्ट नहीं देंगे।
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विद्यालय खण्ड ६१
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