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________________ प्रसन्नचन्द्र ने पूर्ण वैराग्य के साथ संयम ग्रहण किया। मगर ऐसे राजा श्रेणिक की उत्कंठा और बढ़ी। उसने प्रश्न कियाउत्कट वैरागी की भावना में भी दूषण लग गया था। अतएव तुम्हारे भगवन्! फिर आपने सर्वार्थसिद्ध विमान में जाने के लिए कैसे कहा? पूछने पर मैंने यह कहा था कि यदि वे इस समय काल करें तो भगवान् ने उत्तर दिया-प्रसनचन्द्र ध्यान-मुद्रा में बैठे-बैठे भी सातवें नरक में जावें। क्रोध के आवेश में आकर युद्ध करने में लगे थे। उसी क्रोधावेश राजा श्रेणिक ने फिर प्रश्न किया-प्रभो! उनकी भावना किस में उनका हाथ अपने मस्तक पर जा पहुँचा। उन्होंने अपने सिर पर प्रकार दूषित हुई? हाथ फेरा तो उन्हें विदित हुआ कि मेरे सिर पर केश नहीं हैं। यह भगवान-जिस समय तुम सेना लेकर यहाँ आ रहे थे, उस सोचते ही उन्हें सुध आई कि-अरे! मैं तो त्यागी हूँ। फिर भी ऐसे समय प्रसन्नचन्द्र ऋषि ध्यान में बैठे थे। तुम अपनी सेना के आगे- प्रपंच में पड़ा हूँ। मैने जिसे त्याग दिया है, उसी के लिए फिर संसार आगे दो आदमियों को इसलिए चला रहे थे कि वे भूमि देखते रहें में जाने की या चिन्ता करने की क्या आवश्यकता है? जिसे वमन और कोई जीव कुचल न जाये। दोनों आदमी मार्ग साफ करते जाते कर दिया है उसे फिर अपनाने का विचार ही अशोभनीय है। थे। उन दोनों ने भी प्रसत्रचन्द्र ऋषि को देखा। उनमें से एक ने भगवान् ने जो कुछ कहा है और मैंने आपको जो सुनाया है, वह कहा-यह महात्मा कितने त्यागी और कैसे तपस्वी हैं। देखो, किस सिर्फ प्रसचनचन्द्र ऋषि के संबंध में ही न समझिए, इस कथन का तरह ध्यान में डूबे हुए हैं। इनके लिए जगत की सम्पदा तुच्छ है। संबंध अगर उन्हीं के साथ होता और आपके साथ न होता तो आपके एक आदमी के इस प्रकार कहने पर दूसरे ने कहा-तू भूल समक्ष यह कथा रखी ही क्यों जाती? इस कथा के आधार पर आपको रहा है। यह महान् पापी और ढोंगी है। इसके समान पापी और ढ़ोंगी अपने संबंध में विचार करने की आवश्यकता है। आज अपने मन की शायद ही कोई दूसरा होगा। गति पर विचार कीजिए। आप यहाँ बैठे हैं पर आपका मन कहाँ जा पहले आदमी ने आश्चर्य से पूछा-क्यों? यह पापी क्यों हैं? रहा है? प्रसन्नचन्द्र राजर्षि ध्यान में बैठे थे, परन्तु उनका मन कहाँ से दूसरा आदमी बोला-अपने नादान बालक को अपने कहाँ चला गया था। और उसका परिणाम क्या हुआ? इसी प्रकार आप कर्मचारियों के भरोसे छोड़ कर साधु हुआ है। मगर उन कर्मचारियों बैठे तो यहाँ हैं मगर आपका मन अन्यत्र चला गया तो उसका परिणाम को नियत बिगड़ गई है। वे सब आपस में मिल गये हैं और राजपुत्र क्या होगा? आपका मन स्वतंत्र है। क्या आप उपयोग करने में भी की घात करने की फिराक में हैं। जब वे लोग उसे मार डालेंगे तो स्वतंत्र हैं? जैसा आप चाहें अपने मन का उपयोग कर सकते हैं। जब यह निप्ता मरेगा। यह इसका पापीपन नहीं है? इसने कैसी भयानक यह सत्य है तो आप ऐसी जगह बैठकर भी अपने मन को बुरी जगह भूल की है। दूध की रक्षा के लिए बिल्ली को नियत करना जैसे क्यों जाने देते हैं? आपको सोचना चाहिए कि आप क्या लेने के लिए मुर्खता है, उसी प्रकार राजकुमार को कर्मचारियों के भरोसे छोड़ना यहाँ आये हैं? जो कुछ आप लेने आये हैं, वह वस्तु मन को एकाग्र मुर्खता है। इसकी मूर्खता के कारण ही अज्ञानी बालक को अपने करके आत्मा का स्वरूप देखने से और इस प्रकार आत्मबल प्राप्त प्राणों की आहुति देनी पड़ेगी और यह मरकर नरक में जायेगा। करने से ही मिल सकती है। श्रेणिक, तुम्हारे दोनों आदमियों की आपस की बात ऋषि श्री जैन विद्यालय, कोलकाता प्रसन्नचन्द्र ने सुनी। यह बातें सुनकर उनके वैराग्य की भावना बदल गई। वह सोचने लगे-दुष्ट, कृतघ्न लोग मेरे पुत्र की हत्या करना चाहते हैं। मैं ऐसा कदापि नहीं होने दूंगा। मुझमें बल की कमी नहीं है। अब तक मुझे राज्यबल ही प्राप्त था, पर अब मैं योगबल का भी अधिकारी हूँ। इन दोनों बलों द्वारा उन दुष्टों को बुरी तरह कुचल दूंगा। प्रसत्रचन्द्र ऋषि के चित्त में इस प्रकार अहंकार का उदय हुआ और प्रतिशोध की भावना भी उत्पन्न हुई। वे अपने मन में अनेक प्रकार के संकल्प-विकल्प करने लगे। यहाँ तक कि वे मन ही मन घोर युद्ध करने लगे और अपने शत्रुओं का संहार करने लगे। जब वे ऐसा कर रहे थे तभी तुमने प्रश्न किया कि वे काल करें तो कहाँ जावें? तुम उन्हें ध्यान में समझते थे और मैं देखता था कि वे घोर युद्ध में प्रवृत्त हैं। इसी कारण मैने कहा था कि अगर वे इस समय काल करें तो सातवें नरक में जावें। विद्यालय खण्ड/६२ शिक्षा-एक यशस्वी दशक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012030
Book TitleJain Vidyalay Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhupraj Jain
PublisherJain Vidyalaya Calcutta
Publication Year2002
Total Pages326
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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