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________________ राजन मिश्र, प्रथम वर्ष बी. कॉम कामदेव श्रावक महावीर भगवान के समय में द्वादश व्रत को विमल भाव से धारण करनेवाला, विवेकी और निशवचनानुरक्त कामदेव नाम का एक श्रावक उनका शिष्य था। एक समय इन्द्र ने सुधर्मांसभा में कामदेव की धर्म-अचलता की प्रशंसा की। उस समय वहाँ एक तुच्छ बुद्धिमान देव बैठा हुआ था। वह बोला- "यह तो समझ में आया, जब तक नारी न मिले तब तक ब्रह्मचारी तथा जब तक परिषह न पड़े हों तब तक सभी सहनशील और धर्मदृढ़। यह मेरी बात मैं उसे चलायमान करके सत्य कर दिखाऊँ ।” धर्मदृढ़ उस समय कायोत्सर्ग में लीन था । देवता ने विक्रिया से हाथी का रूप धारण किया और फिर कामदेव को खूब रौंदा, तो भी वह अचल रहा; फिर मूसल 'जैसा अंग बनाकर काले वर्ण का सर्प होकर भयंकर फुंकार किये, तो भी कामदेव कायोत्सर्ग से लेशमात्र चलित नहीं हुआ। फिर अट्टहास्य करते हुए राक्षस की देह धारण करके अनेक प्रकार के परिषह किये, तो भी कामदेव कायोत्सर्ग से डिगा नहीं। सिंह आदि के अनेक भयंकर रूप किये, तो भी कामदेव ने कायोत्सर्ग में लेश चैनता नहीं आने दी। इस प्रकार देवता रात्रि के चारों प्रहर उपद्रव करता रहा, परंतु वह अपनी धारणा में सफल नहीं हुआ। फिर उसने उपयोग से देखा तो कामदेव को मेरु के शिखर की भाँति अडोल पाया। कामदेव की अद्द्भुत निश्चलता जानकर उसे विनयभाव से प्रणाम करके अपने दोषों की क्षमा माँगकर वह देवता स्वस्थान को चला गया। 'कामदेव श्रावक की धर्मदता हमें क्या बोध देती है, यह बिना कहे भी समझ में आ गया होगा। इसमें से यह तत्त्वविचार लेना है। कि निर्बंध प्रवचन में प्रवेश करके दृढ़ रहना कायोत्सर्ग इत्यादि जो ध्यान करना है, उसे यथासंभव एकाग्रचित्त से और दृढ़ता से निर्दोष करना।' चलविचल भाव से कायोत्सर्ग बहुत दोषयुक्त होता है। 'पाई के लिए धर्म की सौगन्ध खानेवाले धर्म में दृढ़ता कहाँ से रखें ? और रखें तो कैसी रखें?' यह विचारते हुए खेद होता है। शिक्षा एक यशस्वी दशक Jain Education International प्रत्याख्यान 'पच्चवखान' शब्द बारंबार तुम्हारे सुनने में आया है इसका मूल शब्द 'प्रत्याख्यान' है, और यह अमुक वस्तु की ओर चित्त न जाने देने का जो नियम करना उसके लिये प्रयुक्त होता है। प्रत्याख्यान करने का हेतु अति उत्तम तथा सूक्ष्म है। प्रत्याख्यान न करने से चाहे किसी वस्तु को न खाओ अथवा उसका भोग न करो तो भी उससे संवर नहीं होता, क्योंकि तत्त्वरूप से इच्छा का निरोध नहीं किया है। रात में हम भोजन न करते हों, परंतु उसका यदि प्रत्याख्यानरूप से नियम न किया हो तो वह फल नहीं देता, क्योंकि अपनी इच्छा के द्वार खुले रहते हैं जैसा घर का द्वार खुला हो और श्वान आदि प्राणी या मनुष्य भीतर चले आते हैं वैसे ही इच्छा के द्वार खुले हों तो उनमें कर्म प्रवेश करते हैं । अर्थात् उस ओर अपने विचार यथेच्छरूप से जाते हैं: यह कर्मबंधन का कारण है और यदि प्रत्याख्यान हो तो फिर उस ओर दृष्टि करने की इच्छा नहीं होती। जैसे हम जानते हैं कि पीठ के मध्य भाग को हम देख नहीं सकते; इसलिये उस ओर हम दृष्टि भी नहीं करते: वैसे ही प्रत्याख्यान करने से अमुक वस्तु खायी या भोगी नहीं जा सकती; इसलिये उस ओर अपना ध्यान स्वाभाविकरूप से नहीं जाता। यह कर्मों को रोकने के लिये बीच में दुर्ग-रूप हो जाता है। प्रत्याख्यान करने के बाद विस्मृति आदि के कारण कोई दोष लग जाये तो उसके निवारण के लिये महात्माओं ने प्रायश्चित भी बताये हैं। 1 प्रत्याख्यान से एक दूसरा भी बड़ा लाभ है; वह यह कि अमुक वस्तुओं में ही हमारा ध्यान रहता है, बाकी सब वस्तुओं का त्याग हो जाता है। जिस-जिस वस्तु का त्याग किया है, उस उस वस्तु के संबंध में फिर विशेष विचार, उसका ग्रहण करना, रखना अथवा ऐसी कोई उपाधि नहीं रहती। इससे मन बहुत विशालता को पाकर नियमरूपी सड़क पर चला जाता है। अश्व यदि लगाम में आ जाता है तो फिर चाहे जैसा प्रबल होने पर भी उसे इच्छित रास्ते से ले 'जाया जाता है वैसे ही मन इस नियमरूपी लगाम में आने के बाद चाहे जैसी शुभ राह में ले जाया जाता है; और उसमें बारंबार पर्यटन कराने से वह एकाग्र, विचारशील और विवेकी हो जाता है। मन का आनंद शरीर को भी निरोग बनाता है और अभक्ष्य, अनंतकाय परस्वी आदि का नियम करने से भी शरीर निरोग रह सकता है। मादक पदार्थ मन को उलटे रास्ते पर ले जाते हैं, परंतु प्रत्याख्यान से मन वहाँ जाता हुआ रुकता है; इससे वह विमल होता है। | प्रत्याख्यान यह कैसी उत्तम नियम पालने की प्रतिज्ञा है, यह बात इस परचे से तुम समझे होगे । विशेष सद्गुरु के मुख से और शास्वावलोकन से समझने का मैं बोध करता हूँ। पूर्व छात्र श्री जैन विद्यालय, हावड़ा विद्यालय खण्ड / ६३ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012030
Book TitleJain Vidyalay Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhupraj Jain
PublisherJain Vidyalaya Calcutta
Publication Year2002
Total Pages326
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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