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________________ प्रो० विष्णुकांत शास्त्री अपने नाम में, अपने व्यवहार में वे अंग्रेजों के अधिकाधिक अनुकरण द्वारा अपने को अंग्रेज साबित करने की चेष्टा करते थे। निश्चय ही यह रास्ता भारत के लिए स्वाभिमान का रास्ता नहीं था। कुछ ऐसे विद्वान भी थे जिन्होंने पश्चिमी शिक्षा का बहिष्कार करना चाहा और उसके द्वारा अपने पुरातन जीवन मूल्यों से चिपटे रहने का प्रयास किया। निश्चय ही यह रास्ता भी सही रास्ता नहीं था क्योंकि ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में हम केवल भौगोलिक सीमा के आधार पर जानने, या न जानने का निर्णय नहीं कर सकते। हमारे ही वेद की उक्ति है : 'आ नो भद्रा: क्रतवो यन्तु विश्वत:' अर्थात् सब दिशाओं से मिले शुभ ज्ञान। जो शुभ ज्ञान है वह किसी भी देश से क्यों न आए हमको स्वीकार करना चाहिए। हमारे पुरखों की एक तीसरी श्रेणी थी जिसने अंधानुकरण करने से भी इन्कार किया और पश्चिम के ज्ञान-विज्ञान के उज्ज्वल पक्ष का बहिष्कार करने से भी इन्कार किया। उन्होंने राष्ट्रीय चेतना के विकास का मार्ग प्रशस्त किया। यह जो तीसरा मार्ग है इस तीसरे मार्ग को आज तक उचित मानते हैं, क्योंकि यही सही रास्ता है। शिक्षा का भारतीय आदर्श हम यह जानते हैं कि हम अपने पुराने ज्ञान-विज्ञान को आज के युग प्राय: कहा जाता है कि एक समय था जब भारत को जगद्गुरु में अगर स्वीकार करें तो उसको हम युगानुकूल बनाएँ। प्राचीन की उपाधि प्राप्त थी और हमारे विश्वविद्यालयों में, तक्षशिला में, परंपरा को युगानुकूल बनाकर और विदेशी शैली से ली गई ज्ञान नालन्दा में, विक्रमशिला में या और दूसरे विश्वविद्यालयों में विदेशों राशि को अपन देश के अनुकूल बनाकर हम अपने विकास के से भी बड़े-बड़े विद्वान शिक्षा ग्रहण करने आते थे। बाद में रास्ते पर चल सकते हैं। विकास और शिक्षा इन दोनों का ऐतिहासिक विपर्यय के कारण हमारी स्थिति में परिवर्तन हुआ और अन्योन्याश्रय सम्बन्ध है। अगर हम शिक्षा के क्षेत्र में पीछे रहेंगे तो हमारी शिक्षा का विकास-क्रम अवरुद्ध-सा हो गया। १८५७ में हम विकास के क्षेत्र में भी आगे नहीं बढ़ सकते। हमारे देश की अंग्रेजों ने लंदन विश्वविद्यालय के अनुकरण पर कलकत्ता आज की स्थिति बहुत प्रशंसनीय नहीं है। आज भी हमारे देश की विश्वविद्यालय, मद्रास विश्वविद्यालय और बम्बई विश्वविद्यालय की बहुत बड़ी जनसंख्या निरक्षर है। आज भी हमारे देश में बहुत बड़ी स्थापना की। उनकी स्थापना के पीछे एक कूट योजना भी थी। संख्या प्राथमिक शिक्षा के स्तर से ऊपर नहीं उठ पाई है। बहुत कम मैकाले ने जो टिप्पणी (मिनट) लिखी थी उसमें उन्होंने बताया था लोग उच्चतर शिक्षा प्राप्त कर सके हैं। उनके ऊपर कितना बड़ा कि अगर हम अंग्रेजी माध्यम से भारत के विद्वानों को प्रशिक्षित उत्तरदायित्व है सारे देश के पुनर्निर्माण का, सारे देश के राष्ट्रीय करने का प्रयास करें तो एक दिन ऐसा आएगा कि वे केवल रंग विकास का, इस बात का हमको अनुभव करना चाहिए। में भारतीय रह जाएँगे। अपने चिन्तन में, व्यवहार में वे हमारा हमें इस बात को समझना चाहिए कि आखिर वे कौन-से गुण अनुकरण करने की चेष्टा करेंगे। उनकी यह चेष्टा थी कि वे अंग्रेजी हैं जिन गुणों ने हमारे देश को जगद्गुरु बनाया था और उन गुणों को के माध्यम से शिक्षा देकर भारतीयों को मुख्यत: क्लर्क बनाने के आज हम किस रूप में स्वीकार कर सकते हैं। हमें विचार करना लिए तैयार करें। हमारे उस समय के पुरखों ने इसकी तीन प्रकार चाहिए कि हम अपने देश की परम्परा से जुड़े रह कर कैसे की प्रतिक्रियाएँ कीं। कुछ लोग थे जो बिलकुल अंग्रेजीदाँ हो गए, आधुनिक हो सकते हैं, कैसे हम वास्तव में अपनी उस वैदिक उक्ति अंग्रेजी की नकल में अंग्रेज बनने की चेष्टा करने लगे। यदि उनका को चरितार्थ कर सकते हैं कि विश्वविद्यालय का मतलब होता है नाम था रतन दे तो वे अपने को लिखते थे डी. रैटन और अगर 'यत्र विश्वं भवत्येक नीड़म्', जहाँ सारा संसार एक घोंसला बन उनका नाम था आशुतोष तो अपने को लिखते थे ए, टोष यानी जाए। सारे संसार के विद्वान जहाँ आ सकें और जिसकी दृष्टि क्षेत्रीय शिक्षा-एक यशस्वी दशक विद्वत खण्ड/२३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012030
Book TitleJain Vidyalay Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhupraj Jain
PublisherJain Vidyalaya Calcutta
Publication Year2002
Total Pages326
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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