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डॉ महेन्द्र भानावत
राजधानियों में बैठकर सरकार और गैर सरकारी उच्च संस्थाओं के लिए परियोजनाएं तैयार करते समय उच्च पदस्थ अधिकारी सर्व सामान्य तक अपनी बात पहुंचाने के जो स्पप्न संजोते हैं वे सर्वप्रथम पारम्परिक लोकमाध्यमों पर ही दृष्टि निक्षेप करते हैं, क्योंकि शहरी और अभिजात्य अथवा मध्यवर्गीय परिवारों तक तो आधुनिक माध्यमों से बात पहुंच जाती है किन्तु आधारभूत सुविधाओं के अभाव में जीवन जीने वाले लोगों तक अपनी बात पहुंचाने के लिए हर क्षेत्र के अपने अपने आंचलिक लोक माध्यमों का सहारा लेना पड़ता है। . लोक माध्यमों का वर्गीकरण
यूं तो पहले के हर क्षेत्र में अपने अपने लोक माध्यम है जिनके साथ जहां आंचलिक परम्परा जुड़ी होती है वहीं
आंचलिक भाषा, अंचल जन्य उत्पादों से सजे मढ़े वाद्य होते हैं और फिर वे उस अंचल के लोक जीवन की अपनी पसन्द भी होते हैं तथापि उनका मूल स्वरूप या मूल लक्ष्य एक ही होता है। लक्ष्य और उद्देश्य के अनुसार पारम्परिक
लोकमाध्यमों के तीन स्वरूप है - लोक माध्यम :
१) सूचनात्मक जनशिक्षण और चुनौतियाँ - २) शिक्षात्मक
३) अनुरंजनात्मक भारत परम्पराओं का देश है और यहां की परम्पराएं लोक माध्यमों के प्रत्येक रूपानुरूप के साथ चाहे वे मनुष्य के विवेक के उद्भव अथवा सभ्यता के आदिकाल से रामलीला हो. रासलीला हो. माच. तमाशा. गवरी. जुड़ी हुई हैं। यहां के समाज की पहचान आज भी
चविड्डनाटकम्, भवाई, जात्रा, ख्याल, यक्षगान, कठपुतली, परम्पराधर्मी समाज के रूप में है। लोक ने जिसे अपनी
भगत, तेरुकुत्तु, रमखेलिया, गोंधल, भागवतमेल, विदेशिया, परिपाटी कहा, शास्त्रों ने उसे अपने विशिष्ट सम्प्रदायों के
मुटियाट्टम, करियाला, अंकिया, नौटंकी, कुरवंजि, स्वांग साथ जोड़ते हुए मर्यादा की संज्ञा से अभिहित किया।
स्वदा भांडपथर हो अथवा लोक माध्यमों का और कोई रूप लोक परम्परा के संवाहक के रूप में लोक की ही
हो, उनके साथ सूचना शिक्षा और अनुरंजन उद्देश्यों का पारम्परिक विधियां रही हैं जिन्हें लोक माध्यमों के रूप में निहितार्थ व्याप्त मिलता है। देखा जा सकता है। आज लोक माध्यम चाहे जिस नवीकृत ये पारम्परिक लोकमाध्यम एक प्रकार से किसी अंचल रूप में हमारे सामने हो लेकिन पारम्परिक लोक माध्यम की रसवंती कलाओं का माधुर्य लिए होते हैं। ये कहीं समूह उनके मूलाधार रहे हैं। लोक जीवन इन माध्यमों से और समुन्नत मिलते हैं तो कहीं हास्यभाव भी इनमें देखा साम्प्रदायिक सम्पर्क ही नहीं, सामुदायिक संवाद और जाता
जाता है। ये माध्यम लोक की संजीवनी हैं। कई बार लोक
नो की जीतती है। ना, सामुदायिक सह-शिक्षण भी प्राप्त करता है।
की यह धरोहर लोक को पुनर्जीवित करती है तो कई बार लोक ने इन माध्यमों को अनुरंजनपरक आवरण देकर लोक इन्हें श्रीहीन होने से बचाता है। उन्हें चिरस्थायी बना दिया है। यद्यपि आज ये माध्यम लोक के ये माध्यम कहीं आल्हादक होते हैं तो कहीं आधनिकता का संकट झेल रहे हैं लेकिन देहात में अब भी अनाल्हादक भी किन्तु ये शास्त्रीय अनुष्ठातिक जटिल चक्रों अपनी विरासत को महत्त्ववान बनाये हुए हैं। देहातवासी आज से अलग-अलग अपनी लोक पगडण्डी पर ही अनवरत नजर की उपग्रहीय संचार और सम्प्रेषण प्रणाली से अनभिज्ञ हैं। आते हैं। इन माध्यमों की कछ विशेषताएं भी हैं -
विद्वत् खण्ड/३६
शिक्षा-एक यशस्वी दशक
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