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________________ १) ये लोकभाषा पर आधारित होते हैं। २) लोक की अपनी समझ और स्तर के समानान्तर चलते हैं। (३) लोकोक्तियों के सहारे ये अपना विकास करते हैं। और कई बार सूत्र शैली में भी अपनी यात्रा करते हैं। ४) लोग संग्रह या लोकराधना इनका प्राणिक आधारित हैं। भारत के प्रमुख पारम्परिक लोग माध्यम चाहे वे अभिनेय, प्रदर्शनात्मक या गेय अथवा कथनात्मक हों, मुख्य रूप से निम्न हैं १) लोककथा २) लोकनाटय ३) लोकनृत्य ४) लोकगीत लोककथा लोककथा वह है जो परम्परा से चली आई है। वह तथ्यात्मक भी हो सकती है और कथ्यात्मक भी। यूं तो आदिम युग से मानव ने अपनी अनुभूतियों को कथा के रूप में अथवा रूपक बांधकर समझाने का प्रयास किया है। शास्त्रों में ऐसी कथाओं के कई रूपक मिलते भी हैं किन्तु शास्त्रों में भी बारम्बार लोक की महिमा कर अपने से अधिक महत्त्व लोक को दिया है और वहां श्रुत परम्परा अथवा पुरोवाक्य के रूप में इतिहास पुराण की युक्ति का मिलना लोककथा परम्परा की समृद्धि को ही दर्शाता है। इस प्रकार कथाभिव्यक्ति तीन रूपों में नजर आती है। १) कथा रूपकात्मक २) पौराणिक ३) लोककथात्मक अथवा लोककंठ पर जीवंतएति । भारत में लोककथाएं मुख्य रूप से धार्मिक विकास, व्रत अनुष्ठान, प्रणबद्धता और भय और कौतुक के साथ-साथ रहस्य रोमांच की स्मरणीयता के साथ रसावयवों को लेकर काल के प्रवाह में जीवंत रही हैं। ये ही कथाएं पारम्परिक मिथक, अवदान, चरित्र वर्णन, संस्कारारम्भ, पेड़ प्रकृति वीराख्यान आदि के रूप में भी अपना आकार दर्शाती हैं। यहां पारम्परिक कथाकार रहे हैं जिन्होंने अपनी निराली परम्परा को जीवन दिया है। राजस्थान में कथक्कड़ों या बातपोशी की परम्परा देखने को मिलती है। यहां राणीगंगा, राव, भाट, चारण सहित रावल, मोतीसर, बड़वा, ढादी, शिक्षा - एक यशस्वी दशक Jain Education International नगारची, सरगड़ा, वीरम आदि समुदायों में जजमानों को कहानी द्वारा रिझाकर उनसे यथेष्ट नेग प्राप्त करने की परम्परा रही है। ये कहानियां कौतुक अभिवर्धन करने वाली तथा इतनी सजीव और जानदार होती हैं कि रसिक को सदैव अधीर बनाये रखती हैं। " यहां कथा को केणी, वार्ता बात आदि भी कहा जाता है। यहां कथाओं के कहने के चार रूप देखने को मिलते हैं १) कथास्थल २) कथावाचन ३) कथा गायक • ४) कथा मर्तन | कथाओं के साथ हुंकारे की भी अपनी महिमा है। लोक माध्यमों में हुंकारा अथवा सजीवता की सहमति वह रूप है जो तत्काल सम्प्रेषणीयता की प्रतिक्रिया और कथ्य-तथ्य की पुष्टि का प्रतीक हैं। यह किसी भी आधुनिक माध्यमों में संभव नहीं है फिर हंकारे की ये परम्पराएं इतनी सजीव और जीवन से नैकट्य लिए होती हैं कि उनमें तात्कालिक समझ और स्वीकारोक्ति प्रस्तोताओं के लिए पृष्ठपोषण का कार्य भी करती हैं। लोकथाओं के साथ ही लोकगाथाओं का भी अपना महत्त्व है जो एक प्रकार से लोक का प्रबन्ध काव्य है। इनमें भी लोकमानसीय प्रवृत्तियां, लोक के आदर्श का निरूपण स्वाभाविक प्रवाह तो होता ही है साथ ही साथ चरित्र नायक की जीवन कथा, गेयता में परम्परित होती हैं। ये एक प्रकार से जातीय संस्कृति का अनुभव चित्र प्रस्तुत करती हैं। पवाड़ा भी इसी का एक रूप है। 1 लोकनाट्य लोकजीवन में जन्म लेकर लोक को शिक्षित प्रशिक्षित करने, लोकोद्वार अथवा लोक के लिए आदर्शपरक कार्य करने वाले नायकों के चरित्र का कथात्मक चित्रण तो होता ही है, उसका मंचन भी होता आया है। लोक की यह विशिष्ट थाती है कि उसमें पौराणिक पात्रों से लेकर विभिन्न युगों में जन्म लेकर अपने चरित्रों से अपने श्रेष्ठ उपलब्धिमूलक आदर्शपरक कार्यों से अपनी अमिट छाप कायम करनेवाले चरित्रों की नाट्यपत्र प्रस्तुतियां होती आई हैं। लोक जीवन उन्हें अपने ढंग से मंचित करता है। लोक का अपना मंच है लोक के अपने ही कलाकार उसको मंचित करते हैं। इन लोकनाट्यों की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि दर्शकों में से ही कई बार पात्र उभरकर आते हैं और अपने अनुभव को दर्शा जाते हैं। विद्वत् खण्ड/ ३७ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012030
Book TitleJain Vidyalay Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhupraj Jain
PublisherJain Vidyalaya Calcutta
Publication Year2002
Total Pages326
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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