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________________ संपादकीय का वर्षा जब कृषि सुखाने 'किं किं न साधयति कल्पलतैव विद्या', 'सा विद्याया विमुक्तये', 'विद्या ददाति विनयं' ऐसी अनेक पौराणिक उक्तियाँ हैं जिनका गाहे-बगाहे हम प्रयोग करते आ रहे हैं। विद्या कल्पलता, कल्पवृक्ष के समान है जिससे सब कुछ प्राप्त किया जा सकता है, साधा जा सकता है। विद्या मुक्ति प्रदाता है, स्वावलम्बन और आत्म-निर्भरता की जननी है और विद्या प्राप्त कर व्यक्ति विनयी बन जाता है, गर्व एवं अहंकार उसको छू भी नहीं पाते लेकिन आज तो सब कुछ इसके विपरीत दृष्टिगत हो रहा है।। जिन अर्थों में विद्या अथवा इस प्रकार की उक्तियों का प्रयोग किया जा रहा है, वह सत्य से नितान्त परे हैं। विद्या को शिक्षा का पर्याय मानने की भूल विगत काफी अर्से से की जा रही है। वस्तुत: विद्या एवं शिक्षा में काफी भिन्नता है। विद्या प्राप्त व्यक्ति कुशल, निष्णात समय में गुरू के सान्निध्य में रहकर जो बालक विद्या प्राप्त कर आश्रम से विदा होता था, वह जीवन के किसी भी क्षेत्र में निर्द्वन्द्व विचरण करता हुआ निरन्तर आगे बढ़ता रहता था। इसके प्रतिकूल एक शिक्षित व्यक्ति दर-दर भटकने के लिए मजबूर है। वह परमुखापेक्षी बनकर व्यक्तिगत स्वार्थ लिप्सा में सर्वथा स्वारथरत दिखाई देता है। जो विद्या विनय का आधार थी, वह अहंकार एवं अहम्मन्यता का कारण बन गई है। बात-बात में गर्वोक्ति एवं दर्पोक्ति के विष बुझे बाणों से किसी को आहत कर संतोष की अनुभूति करना आम बात प्रतीत होती है। शिक्षा के क्षेत्र में फैलती मूल्यहीनता सुरक्षा की भाँति अराजकता की सतत वृद्धि का कारण है। शिक्षा आज एक व्यवसाय हो गई है, शुद्ध व्यवसाय। व्यवसाय में तो पूंजी निवेश आवश्यक है लेकिन शिक्षा में तो बहुत कम पूंजी से भी काम चलाया जा सकता है और कई गुना लाभ प्राप्त कर सकते हैं। शिक्षा के नाम पर चलाये जानेवाले ऐसे स्कूल बदनुमादाग हैं। दूसरी तरफ पाँच सितारा होटलों की तरह ऐसे तकनीकी स्कूल कॉलेज हैं जहाँ लाखों रुपये का 'डोनेशन' लेकर प्रवेश दिया जाता है। इस डोनेशन के बारे में क्या कहा जाय, सूर्य के प्रकाश की तरह शिक्षा के क्षेत्र में फैली यह अराजकता सवींवदित है। शिक्षा प्रेमी के नाम पर शिक्षाविद् एवं शिक्षाशास्त्री कहलानेवाले व्यक्ति जिस तरह अबोध बालकों एवं शिक्षार्थियों के जीवन से खिलवाड़ कर रहे हैं वे भी इस अराजकता के उतने ही दोषी हैं जितने अन्य लोग। आत्म प्रशंसा, यश:शिखर पर पहुँचने की प्रबल उत्कंठा एवं बच्चों के प्रति भेड़ बकरियों का व्यवहार भी भीषण जुगुप्सा का कारण है। स्वतंत्रता के बाद शिक्षा के प्रति हर सरकार का सदैव उपेक्षा भाव रहा है। केवल आयोगों के गठन की घोषणा में सरकार ने अपने कर्तव्य की इति श्री मान ली। गठित आयोगों ने शिक्षा में परिवर्तन के जो सझाव दिये वे फाइलों की ही शोभा बढ़ा रहे हैं। उन पर अमल करने की फुरसत सरकार के पास नहीं थी, नहीं है और संभवत: रहेगी भी नहीं। आज कहीं शिक्षा के भगवाकरण के आरोप लग रहे हैं तो कहीं साम्यवादीकरण के। शिक्षा की इस दुर्दशा का परिणाम भोगना पड़ रहा है नई पीढ़ी को बिना किसी अपराध के। युवा पीढ़ी में इस समय व्याप्त आक्रोश, निराशा और भय भी इसी अराजकता की उपज है। नक्सलवाद की जड़ में भी यह असमानता और विद्वेष की भावना रही है। युवा पीढ़ी पर दिशाहीनता, कर्तव्य की उपेक्षा और परावलंबिता के आरोप चाहे जितने लगाये जायं, उन्हें प्रमादी, कामचोर एवं सदाचारहीन कितना ही कहा जाय लेकिन इसका दायित्व किसका है? क्यों ऐसी स्थिति उत्पन्न हुई है? यह सोचना आवश्यक है। ऐसे आरोपों को लगाते समय हमें अपने गिरेबान में झांक कर देखना होगा कि कहीं हमारी स्वार्थपरता, यशैषणा, महत्वाकांक्षा और बड़बोलापन तो इसकी जड़ में नहीं है। मीडिया, संचार साधनों की द्वतता, वैश्वीकरण की प्रक्रिया, उपभोक्तावाद, फैशनपरस्ती, बाजारवाद एवं अपसंस्कृति की तीव्र आँधी में इस समय सब कुछ बहा जा रहा है। अंधी होड़ा होड़-प्रतियोगिता और बिना किसी श्रम के करोड़पति बनने के वात्याचक्र में निरीह व्यक्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012030
Book TitleJain Vidyalay Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhupraj Jain
PublisherJain Vidyalaya Calcutta
Publication Year2002
Total Pages326
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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