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________________ भारतीय शैक्षणिक दृष्टि यह रही है कि हम तो अपने जीवन की सार्थकता के लिए पढ़ रहे हैं, हम तो अपने जीवन में ऋषि ऋण उतारने के लिए जो कुछ हमने बड़ों से सीखा है उसको सामान्य जितेन्द्रियता जनता तक पहुँचा देने के लिए काम कर रहे हैं। अत: हमारी चिन्ता जब तक जीभ स्वादिष्ट भोजन चाहती है, जब तक नासिका होनी चाहिए कि कैसे हम उच्चतम ज्ञान-विज्ञान भारतीय भाषाओं में सुगंध चाहती है, जब तक कान वारांगना के गायन और वाद्य चाहते ले आएँ, कैसे हम उच्चतम विद्या को निम्नतम में ले आएँ, कैसे हैं, जब तक आँखे वनोपवन देखने का लक्ष्य रखती हैं, जब तक हम उच्चतम विद्या को निम्नतम वर्ग तक पहुंचाने की धारावाहिकता त्वचा सुगंधीलेपन चाहती है, तब तक यह मनुष्य नीरोगी, निग्रंथ, उत्पन्न करें। निष्परिग्रही, निरारंभी और ब्रह्मचारी नहीं हो सकता। मन को वश मैं यह भी मानता हूँ कि हमारे देश के पुनर्निर्माण का जो करना यह सर्वोत्तम है। इससे सभी इन्द्रियाँ वश में की जा सकती हैं। महायज्ञ चल रहा है, उसकी वास्तविक आधारभूमि विश्वविद्यालय । मन को जीतना बहुत-बहुत दुष्कर है। एक समय में असंख्यात योजन हैं। हमारे विश्वविद्यालयों में जैसे प्राध्यापक, प्रशासक रहेंगे, हम वैसे चलनेवाला अश्व यह मन है। इसे थकाना बहुत दुष्कर है। इसकी गति ही पाठ्यक्रम रखेंगे, वैसा ही वातावरण बनाएँगे, वैसे ही विद्यार्थी ___ चपल और पकड़ में न आ सकनेवाली है। महाज्ञानियों ने ज्ञानरूपी उत्पन्न करेंगे। स्वाभवत: देश वैसा ही बनेगा। अगर हम अपने राष्ट्र लगाम से इसे स्तंभित करके सब पर विजय प्राप्त की है। को महान् बनाना चाहते हैं तो अपनी गौरवपूर्ण परम्परा से प्रेरणा लेते उत्तराध्ययनसूत्र में नमिराज महर्षि ने शकेन्द्र से ऐसा कहा कि हुए आगामी सहस्त्राब्दी में आने वाली चुनौतियों का मुकाबला करने दस लाख सुभटों को जीतनेवाले कई पड़े हैं, परन्त स्वात्मा को में समर्थ प्राध्यापक नवीनतम ज्ञान-विज्ञान से समृद्ध पाठ्यक्रम और जीतनेवाले बहत दुर्लभ हैं, और वे दस लाख सभटों को जीतनेवालों परिवेश की संयोजना हमें करनी होगी जिससे सभी चुनौतियों का की अपेक्षा अति उत्तम हैं। समुचित प्रत्युत्तर देने में समर्थ विद्यार्थियों का निर्माण हम कर सकें। मन ही सर्वोपाधि की जन्मदात्री भूमिका है। मन ही बंध और (कानपुर विश्वविद्यालय में दीक्षांत भाषण) मोक्ष का कारण है। मन ही सर्व संसार की मोहिनीरूप है। यह वश हो जाने पर आत्मस्वरूप को पाना लेशमात्र दुष्कर नहीं है। मन से इन्द्रियों की लोलुपता है। भोजन, वाद्य, सुगंध, स्त्री का निरीक्षण, सुन्दर विलेपन यह सब मन ही माँगता है। इस मोहिनी के कारण यह धर्म को याद तक नहीं करने देता। याद आने के बाद सावधान नहीं होने देता। सावधान होने के बाद पतित करने में प्रवृत्त होता है अर्थात् लग जाता है। इसमें सफल नहीं होता तो सावधानी में कुछ न्यूनता पहुँचाता है। जो इस न्यूनता को भी न पाकर अडिग रहकर मन को जीतते हैं, वे सर्वसिद्धि को प्राप्त करते हैं। मन अकस्मात् किसी से ही जीता जा सकता है, नहीं तो अभ्यास करके ही जीता जाता है। यह अभ्यास निग्रंथता में बहुत हो सकता है, फिर भी गृहस्थाश्रम में हम सामान्य परिचय करना चाहें तो उसका मुख्य मार्ग यह है कि यह जो दुरिच्छा करे उसे भूल जायें, वैसा न करें। यह जब शब्द, स्पर्श आदि विलास की इच्छा करे तब इसे न दें। संक्षेप में, हम इससे प्रेरित न हों, परन्तु हम इसे प्रेरित करें और वह भी मोक्षमार्ग में। जितेन्द्रियता के बिना सर्व प्रकार की उपाधि खड़ी ही रहती है। त्यागने पर भी न त्यागने जैसा हो जाता है, लोक-लज्जा से उसे निभाना पड़ता है। इसलिए अभ्यास करके भी मन को जीतकर स्वाधीनता में लाकर अवश्य आत्महित करना चाहिये। विद्वत खण्ड/२८ शिक्षा-एक यशस्वी दशक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012030
Book TitleJain Vidyalay Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhupraj Jain
PublisherJain Vidyalaya Calcutta
Publication Year2002
Total Pages326
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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