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________________ व्यक्तित्व के धारक हो जाते हैं फिर एक विडम्बना यह भी देखने को मिल रही है कि सांस्कृतिक आयोजनों के ठेकेदार पारम्परिक कला साधकों या कलापक्ष परिवारों की उपेक्षा कर डुप्लीकेसी का खेल खेलते नजर आते हैं। लोक कलाकारों के प्रशिक्षण का अभाव कल तक बातपोशी, लोकगीतों का गायन, नर्तन, वादन, कथा कथन जैसी कलाओं का प्रशिक्षण कलाकार अपने घर पर ही कर लिया करते थे, आज वह परम्परा नहीं रही। नई पीढ़ी अपनी परम्परा को हेय दृष्टि से देखने लगी। उसे नया कुछ करने की जुगत में एबीसीडी से कार्यारम्भ करना पड़ता है एक प्रकार से वे अपने पारम्परिक कर्म और धर्म से हीन होकर नवीन अनुशासन में अनुभव प्राप्त करना चाहते हैं जो न केवल उन्हें महंगा पड़ता है बल्कि पारम्परिक कला माध्यमों पर भी भारी पड़ रहा है। पिछले कुछ समय से कुछ कला संस्थानों में लोक कलाकारों के प्रशिक्षण की चिंता उठने लगी है किन्तु यह भी एक विडम्बना है कि ये कला प्रशिक्षण समयबद्ध होते हैं जबकि लोककलाकारों के लिए सतत प्रशिक्षण और सुधिदर्शक समुदाय की आवश्यकता होती है। लोक कलाकारों को प्रशिक्षण वे लोग देने लगे है जो कला रूपों को जानते ही नहीं हैं। आज बड़े शहरों में कई संस्थाएं लोक कला प्रशिक्षण के नाम पर ग्रीष्मकाल आदि अवकाश के समय शिविर आयोजित करते हैं किन्तु उनका परिणाम एक-दो नृत्य तक ही सीमित होकर रह जाता है। अन्य कई माध्यम हैं जिनके प्रशिक्षण की कोई व्यवस्था नहीं है यथा पड़गायन, कावड़ वाचन, कथा कथन अथव बातपोशी, कथा गायन, लोकचित्रायण का अंकन आदि विधाओं के लिए कोई प्रशिक्षण नहीं होते क्योंकि ये बेहद श्रम और समय साध्य कला माध्यम रहे हैं। इसी प्रकार लोकवाद्यों के वादन के प्रशिक्षण शिविर भी नहीं लगाये जाते खड़ताल, रावणहत्था, सिंपी, सारंगी, अपंग, गिरगिड़ी, भूगल, डोंसका, मोरचंग, नड़, घोरयू आदि वाद्यों का वादन तो लुप्त ही होता चला गया। माठ वादन की बातें तो देखते ही देखते खत्म हो गई हैं। शादी समारोहों में शहनाई, बांकिया और नक्काड़ा वादन के ओडियो टेप आ गये हैं। विद्वत् खण्ड / ४२ Jain Education International लोककथा उपकरणों का निर्माण रुकना कल तक जो कलाकार अपने हाथों से पसंदीदा वाद्यों या कला सहयोगी सामान का निर्माण करते थे वे अपनी कला को छोड़ चुके हैं । पुतलीकार, नट, भाट अपने माध्यम स्वयं नहीं बनाते बल्कि बने बनाये सामान से ही अपना काम चलाकार यह कहते सुने जाते हैं कि हमने तो अपनी जिन्दगी जी ली अब आने वाली पीढ़ी खुद अपनी चिंता करेगी क्योंकि आगन्तुक पीढ़ी कुछ नया कर दिखाना चाहती है। सिंघी, सारंगी का निर्माण बन्द हो गया, मोरचंग का वादन और निर्माण थम सा गया है। नड़, अलगौंजे, चंग, तारपी पावरी, घोरयू, बांकिया, नरसिंगे केवल संग्रहालयों की शोभा होकर रह गये। मशक और अरबी ताण के बाजे अब समारोहों की शोभा नहीं बढ़ाते बल्कि विवाह वाद्यों में भी सिन्थेसाइजर बजाया जाने लगा है जो एक ही वाद्य कई वाद्यों को पूर्ति कर देता है । बस्सी जैसे काष्ठ शिल्पियों के गांव में कावड़ों, मुखौटों, पुतलियों, गणगौरों, खांडों केवाणों का निर्माण नहीं होता। खांडों को बने हुए वर्षों हो गये भरावों के शिल्प, गवारियों की कांगातिया आज लोक पसन्दगी से ही जाते रहे। यही कारण है कि घाट से गड़ाई महंगी होने लगी। पड़ों का स्थान पड़क्यों ने ले लिया फिर मुद्रण कला ने भी पड़ पर भारी प्रहार किया। एक प्रकार से मुद्रण ने जहां दुर्लभ चीजों को सरेआम लाकर रख दिया वहीं कलाकारों की उत्पादन क्षमता ओर उदरपूर्ति के माध्यम पर भी भारी चोट की है। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि पारम्परिक लोकमाध्यम जो कभी अपने अंचल में अपनी परम्परा की साख भरते थे, वे अपनी पहचान ही खोते जा रहे हैं क्योंकि उनके सामने चुनौती चुनौती न होकर सुरसा की तरह दिन दुगुना रात चौगुना बढ़ने वाला संकटाकार रूप लिए मुंह बायें खड़ा है। ऐसे में यदि पारम्परिक माध्यमों को बचाने के हनुमत् प्रयास नहीं हुए तो केवल चुनौतियां ही नजर आयेंगी और लोकमाध्यमों की केवल बातें ही रह जायेंगी। For Private & Personal Use Only शिक्षा - एक यशस्वी दशक www.jainelibrary.org
SR No.012030
Book TitleJain Vidyalay Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhupraj Jain
PublisherJain Vidyalaya Calcutta
Publication Year2002
Total Pages326
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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