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________________ 0 श्रीमद् राजचन्द्र को भूल जायेंगे; अन्याय को जन्म देंगे; जैसे लूट सकेंगे वैसे प्रजा को लूटेंगे। स्वयं पापिष्ठ आचरणों का सेवन करके प्रजा से उनका पालन करायेंगे। राजबीज के नाम पर शून्यता आती जायेगी। नीच मंत्रियों की महत्ता बढ़ती जायेगी। वे दीन प्रजा को चूसकर भंडार भरने का राजा को उपदेश देंगे। शील भंग करने का धर्म राजा को अंगीकार करायेंगे। शौर्य आदि सद्गुणों का नाश करायेंगे। मृगया आदि पापों में अंध बनायेंगे। राज्याधिकारी अपने अधिकार से हजारगुना अहंकार रखेंगे। विप्र लालची और लोभी हो जायेंगे। वे सद्विद्या को दबा देंगे, संसारी साधनों को धर्म ठहरायेंगे। वैश्य मायावी, केवल स्वार्थी और कठोर हृदय के होते जायेंगे। समग्र मनुष्यवर्ग की सद्वृत्तियाँ घटती जायेंगी। अकृत्य और भयंकर कृत्य करते हुए उनकी वृत्ति नहीं रुकेगी। विवेक, विनय, सरलता इत्यादि सद्गुण घटते जायेंगे। अनुकंपा के नाम पर हीनता होगी। माता की अपेक्षा पत्नी में प्रेम बढ़ेगा; पिता की अपेक्षा पुत्र में प्रेम बढ़ेगा; नियमपूर्वक पतिव्रत पालनेवाली सुन्दरियाँ घट जायेंगी। स्नान से पवित्रता मानी जायेगी; धन से उत्तम कुल माना जायेगा। शिष्य गुरु से उलटे चलेंगे। भूमि का रस घट जायेगा। संक्षेप में कहने का भावार्थ यह है कि उत्तम वस्तुओं की क्षीणता होगी और निकृष्ट वस्तुओं का उदय होगा। पंचमकाल का स्वरूप इनका प्रत्यक्ष सूचन भी कितना अधिक करता है? मनुष्य सद्धर्मतत्त्व में परिपूर्ण श्रद्धावान नहीं हो सकेगा; संपूर्ण तत्त्वज्ञान नहीं पा सकेगा; जम्बुस्वामी के निर्वाण के बाद दस निर्वाणी वस्तुओं का इस भरतक्षेत्र से व्यवच्छेद हो गया। पंचमकाल का ऐसा स्वरूप जानकर विवेकी पुरुष तत्त्व को ग्रहण करेंगे; कालानुसार धर्मतत्त्वश्रद्धा को पाकर उच्चगति को साधकर परिणाम में मोक्ष को साधेगे। निग्रंथ प्रवचन निग्रंथ गरु इत्यादि धर्मतत्त्व की प्राप्ति के साधन हैं। इनकी आराधना से कर्म की विराधना है। पंचमकाल कालचक्र के विचार अवश्य जानने योग्य हैं। जिनेश्वर ने इस कालचक्र के दो भेद कहे हैं- १. उत्सर्पिणी, २. अवसर्पिणी। एक-एक भेद के छ: छः आरे हैं। आधुनिक प्रवर्तमान आरा पंचमकाल कहलाता है और वह अवसर्पिणी काल का पाँचवाँ आरा है। अवसर्पिणी अर्थात् उतरता हुआ काल। इस उतरते हुए काल के पाँचवें आरे में इस भरतक्षेत्र में कैसा वर्तन होना चाहिये इसके बारे में सत्पुरुषों ने कुछ विचार बताये हैं, वे अवश्य जानने योग्य हैं। वे पंचमकाल के स्वरूप को मुख्यत: इस आशय में कहते हैं। निग्रंथ प्रवचन में मनुष्यों की श्रद्धा क्षीण होती जायेगी। धर्म के मूल तत्त्वों में मतमतांतर बढ़ेंगे। पाखंडी और प्रपंची मतों का मंडन होगा। जनसमूह की रुचि अधर्म की ओर जायेगी। सत्य, दया धीरे-धीरे पराभव को प्राप्त होंगे। मोहादिक दोषों की वृद्धि होती जायेगी। दंभी और पापिष्ठ गुरु पूज्य होंगे। दुष्टवृत्ति के मनुष्य अपने प्रपंच में सफल होंगे। मीठे परंतु धूर्त वक्ता पवित्र माने जायेंगे। शुद्ध ब्रह्मचर्य आदि शील से युक्त पुरुष मलिन कहलायेंगे। आत्मिकज्ञान के भेद नष्ट होते जायेंगे। हेतुहीन क्रियाएँ बढ़ती जायेंगी। अज्ञान क्रिया का बहुधा सेवन किया जायेगा। व्याकुल करनेवाले विषयों के साधन बढ़ते जायेंगे। एकांतिक पक्ष सत्ताधीश होंगे। शृंगार में धर्म माना जायेगा। सच्चे क्षत्रियों के बिना भूमि शोकग्रस्त होगी। निस्सत्त्व राजवंशी वेश्या के विलास में मोहित होंगे। धर्म, कर्म और सच्ची राजनीति विद्वत खण्ड/१२८ शिक्षा-एक यशस्वी दशक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012030
Book TitleJain Vidyalay Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhupraj Jain
PublisherJain Vidyalaya Calcutta
Publication Year2002
Total Pages326
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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