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दिशा
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प्रताप बाबू जब से कलकत्ते आए हैं उन्हें यहाँ एक ही चीज अच्छी लगती है, घर से रोज टहल कर लेक की तरफ आना, घूमना और बेंच पर बैठ जल को निहारना घंटों । इधर आते हुए उन्हें यह ब्रिज क्रॉस करना पड़ता है और तब ब्रिज के नीचे से आती-जाती ट्राम रोज बच्चों और माँओं की भीड़ देखते हैं अपने वजन से भी भारी बैग और पानी का फ्लास्क टाँगे हुए बच्चे प्रताप बाबू टहलते हुए प्रायः सोचते हैं महानगर की ऐसी सुबह के बारे में सुबह भी बंटी हुई है जैसे । बस- ट्राम चालकों की सुबह, बच्चों और माँओं की सुबह, चाय और मिठाई की दुकानों की सुबह और भिखारियों की सुबह मानो एक बार होती है एकदम तड़के दफ्तर, फैक्टरी आदि जाने वाले । लोग तबतक सोए रहते हैं। उनकी सुबह साढ़े आठ बजे होती है। तब हड़बड़ी शुरू होती है कि क्या कहना। लोग दौड़े-भागे बस स्टाप पर पहुँचते और अपने को लाद देते हैं बसों में प्रताप बाबू सुनते तो खूब हैं इस लाइफ के बारे में जिसे "फास्ट" कहा जाता पर समझते जरा भी नहीं। इस 'फास्टनेस' को समझने का महत्व है अपने 'स्लोनेस' को समझें। अपने बचपन से लेकर अपने बुढ़ापे तक के स्लोनेस को तब जब कहीं दूर अजान के स्वर के साथ ब्रह्म मुहूर्त । में माता-पिता दोनों ही उठ जाते थे और सम्मिलित कंठ से आराधते
डॉ० मंजुरानी सिंह
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शांताकारम भुजंगशयनम्, पदमनाभम्, सुरेशं... और फिर या कुन्देन्दु तुषारहार धवला वाली सरस्वती वंदना तो स्वर के
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विद्वत खण्ड / ९०
में
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आरंभ के साथ पाँचों भाई बहन उठ बैठते थे। सभी तुतले उच्चारण के साथ सम्मिलित हो जाते थे प्रताप बाबू को अभी भी अपनी माँ याद आती है एक विशिष्ट व्यक्तित्व के रूप में थी। वेद-उपनिषद का ज्ञान तो उन्हें बहुत बाद में हुआ पर माँ बचपन में ही वेद से एक अनुदित पाठ मीठे - सुरीले कंठ से गाती थी, उन्हें सिखलाती थी। माँ नहाधोकर पूजा पाठ में लग जाती थी और पिता बच्चों को लेकर खेतों की तरफ निकल जाते थे तब कोई बाथरूम, लेट्रिन तो था नहीं सबको दूर गाँव के खेतों बगीचों और नदियों की तरफ निकलना पड़ता था । रास्ते भर पिता बच्चों के रंग बिरंगे सवालों का जवाब देते चलते थे और दुनिया भर की नई-नई बातें, नई-नई जानकारियाँ भी देते थे। इसी कृषक पिता और गृहस्थ माँ ने उन्हें गाँव से बाहर शहर भी भेजा था पढ़ने को शहर गाँव से पचास किलोमीटर दूर था। चार मील पैदल चल कर बस पकड़नी पड़ती थी, यह बस दिन में सिर्फ एक ही बार आती थी। तब चार बजे सुबह माँ उन्हें रोटी सब्जी बनाकर खिलाती और साथ बाँध भी देती थी। सबसे बड़े थे प्रताप बाबू और बुद्धि भी तीव्र थी उनकी वैसे भी पिता का संस्कारित विश्वास था कि अगर बड़ा पाया संभल गया तो सब संभल जाएगा। माँ की महत्वाकांक्षा थी कि बेटा बड़ा अफसर बने पिता को अपनी पत्नी से बेहद प्रेम था उनकी ऐसी इच्छाओं को पूरी करने की उन्होंने हमेशा कोशिश की कोशिश का मतलब आज की तरह बैंकिंग या धूसपास
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थोड़े ही था, बस अच्छे संस्कार, सुविधा और खर्च देना भर था। जैसा कि गाँवों के लोगों के मन में एक ग्रंथि होती है कि वे गंवार हैं, अपढ़
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प्रताप बाबू के पिता में भी थी प्रतापबाबू को अपने पिता की इस भावना से ग्लानि होती थी। ये लगातार प्रथम श्रेणी पाने की कोशिश करते पाते भी उनकी स्पष्ट मान्यता थी कि भारत के पच्चीस-तीस प्रतिशत साक्षर लोग यहाँ के निरक्षर लोगों के कष्ट और त्याग का परिणाम हैं। इसीलिए अफसरी मिलने और शहरों में रहने के बावजूद इनके दिल में गाँव की जमीन, गाँव की हवा, नदी, नहर, बगीचे और गाँव के लोग राज करते रहे। जहाँ शिक्षा का सवाल है, शहर तो बहुत बाद में शुरू हुआ उनके जीवन में, परन्तु जो अनुभव, जो ज्ञान गाँव की इस माटी, पानी और आकाश ने गूंथा उनके भीतर, रोपा उनके भीतर, वह क्या शहर में संभव था ? प्रताब बाबू को याद है, होश साथ ही वे धान, मकई, गेहूँ, अरहर, मूंग, मसूर, उड़द, मटर, खेसारी, चना, सरसों, राई, तिल, आलू, बैगन, टमाटर, गोभी, साग, मिर्च, जीरा, धनिया, सोआ, मेथी से लेकर आम, जामुन, कटहल, अमरूद, बेर, नारियल, खीरा, ककड़ी, तरबूज आदि तमाम खाने-पीने वाली चोजों, पेड़-पौधों के नाम न केवल जानते थे बल्कि उनके अंग-प्रत्यंगों को पहिचानते थे, उनका जीता-जागता रसानुभव था। वे जानते थे कि
शिक्षा - एक यशस्वी दशक
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