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________________ लोगों की आँखें चौधिया गईं। आँखों को मलते हुए स्पष्टत: देखा कि नहीं सुना था। अरे! हाँ, याद आया, उस बटुक ने कहा थासहस्रों सूर्यों की तरह देदीप्यमान सहस्रों विमानों से नीलगगन "ज्ञातवंशीय महावीर अलौकिक शक्ति के भी धारक हैं।" हूँ! तो यह ज्योतिर्मय हो रहा है। देव विमानों को यज्ञ-मण्डप की ओर अग्रसर क्षत्रिय है! ब्राह्मणों से विद्या प्राप्त करने वाला और विप्रों के चरण-स्पर्श होते देख उपस्थित अपार जन-समूह यज्ञ का महात्म्य समझ कर करने वाला क्षत्रिय सर्वज्ञ बन बैठा है। धोखा है। यह सर्वज्ञ नहीं, आनन्द विभोर हो उठा। इन्द्रजाली प्रतीत होता है। इन्द्रजाल/सम्मोहिनी विद्या से इसने सब को प्रमुख यज्ञाचार्य इन्द्रभूति गौतम अत्यन्त प्रमुदित हुए और बेवकूफ बना रखा है। शेर की खाल ओढ़कर यह सियार अपनी माया घनगम्भीर गर्वोन्नत स्वर में यजमान सोमिल को सम्बोधित कर कहने जाल से सब को मूर्ख बना रहा है। मानता हूँ, मानव तो माया जाल लगे- "देखो विप्रवर! यज्ञ और वेद मन्त्रों का प्रभाव देखो! सतयुग में आकर मूर्ख बन सकता है, देवता नहीं। किन्तु, यहाँ तो सारे के सारे का दृश्य साकार हो गया है! अपना-अपना हविर्भाग पुरोडाश ग्रहण देवता भी इसके जाल में फँसकर भटक रहे हैं। चाहे कोई भी हो, मेरे. करने इन्द्रादि देव सशरीर तुम्हारे यज्ञ में उपस्थित हो रहे हैं। तुम्हारा अगाध वैदुष्य के समक्ष कोई टिक नहीं सकता। जैसे एक म्यान में दो मनोरथ सफल हो गया है।" और, स्वयं शतगुणित उत्साह से तलवारें नहीं रह सकतीं वैसे ही इस पृथ्वीतल पर मेरी विद्यमानता में प्रमुदित होकर और अधिक उच्च स्वरों से वेद मंत्रोच्चारण करते हुये दूसरे सर्वज्ञ का अस्तित्व नहीं रह सकता। यह कैसा भी सर्वज्ञ हो, आहुतियाँ देने लगे। सहस्रों कण्ठों से एक साथ नि:सृत मन्त्र-ध्वनि इन्द्रजाली हो, मायावी हो, मैं जाकर उसके सर्वज्ञत्व को, मायावीपन और स्वाहा के तुमुल घोष से आकाश गूंज उठा। को ध्वस्त कर दूंगा, छिन्न-भिन्न कर दूंगा। मेरे सन्मुख कोई भी कैसा परन्तु, 'यह क्या ! ये सारे देव-विमान तो यहाँ उतरने चाहिये थे, भी क्यों न हो, टिक नहीं सकता। तो, मैं चलूं उस तथाकथित सर्वज्ञ वे तो इस यज्ञ-मण्डप को लांघ कर नगर के बाहर जा रहे हैं! क्या का मान-मर्दन करने। ये देवगण मन्त्रों के आकर्षण से यहाँ नहीं आ रहे हैं! क्या यज्ञ का भ्रम-निवारण-अभिमानाभिभूत होकर इन्द्रभूति तत्क्षण ही प्रभाव इन्हें आकृष्ट नहीं कर रहा है।' सोचते-सोचते ही न केवल यज्ञवेदी से उतरे, अपनी शिखा में गाँठ बाँधी, अन्तरीय वस्त्र ठीक इन्द्रभूति का ही अपितु सभी याज्ञिकों का गर्वस्मित मुख श्यामल हो किया, खड़ाऊ पहने और मदमत्त हाथी की चाल से चल पड़े महावीर गया। नजरें नीची हो गईं। आहुति देते हाथ स्तम्भित से हो गए। मन्त्र- के समवसरण की ओर। अन्य दसों याज्ञिकाचार्य देखते ही रह गये। ध्वनि शिथिल पड़ गई। नीची गर्दन कर इन्द्रभूति मन ही मन सोचने इन्द्रभूति के पीछे-पीछे उनके ५०० छात्र शिष्य भी अपने गुरु का लगे। 'पर, ये देवगण जा किसके पास रहे हैं?' सोच ही रहे थे कि जय-जयारव करते हुए एवं वादीगजकेसरी, वादीमानमर्दक, देवों का तुमुल-घोष कर्णकुहरों में पहुँचा कि-"चलो, शीघ्र चलो, वादीघूकभास्कर, वादीभपंचानन, सरस्वतीकण्ठाभरण आदि सर्वज्ञ महावीर को वन्दन करने महसेन वन शीघ्र चलो।" इन्द्रभूति को विरुदावली का पाठ करते हुए चल पड़े। अहंकार और ईर्ष्या मिश्रित विश्वास नहीं हुआ। अपने बटुकों/शिष्यों/छात्रों को भेजकर जानकारी मुख-मुद्रा धारक आचार्य को त्वरा के साथ गमन करते देखकर, करवाई तो ज्ञात हुआ-"भगवान महावीर केवलज्ञानी/सर्वज्ञ बनकर नगरवासी स्तम्भित से रह गए। कुछ कुतूहल प्रिय नागरिक मजा अपापा नगरी के बाहर महसेन वन में आये हैं। देव-निर्मित अलौकिक देखने उनके पीछे-पीछे चल पड़े। समवसरण में बैठकर धर्मदेशना दे रहे हैं। उन्हीं को नमन करने एवं सर्वज्ञ दर्शन-अपापा नगरी से बाहर निकल कर इन्द्रभूति ज्यों उनकी देशना सुनने नगर निवासी झुण्ड के झुण्ड बनाकर वहाँ पहुँच ही महसेन वन की ओर बढ़े, तो देवनिर्मित समवसरण की अपूर्व रहे हैं। समस्त देवगण भी समवसरण में सर्वज्ञ महावीर की अनुचरों एवं नयनाभिराम रचना देखकर वे दिङ्मूढ़ से हो गये। जैसे-तैसे की भाँति सेवा कर रहे हैं।" सुनते ही आहत सर्प की तरह गर्वाहत समवसरण के प्रथम सोपान पर कदम रखा। समवसरण में स्फटिक होकर इन्द्रभूति हुंकार करते हुए गरजने लगे। क्रोधावेश के कारण रत्न के सिंहासन पर विराजित वीतराग महावीर के प्रशान्त मुखउनका मुख लाल-लाल हो गया। आँखों से मानो ज्वालाएँ निकलने मण्डल की अलौकिक एवं अनिर्वचनीय देदीप्यमान प्रभा से वे इतने लगीं। हाथ-पैर काँपने लगे। वे बुदबुदा उठे प्रभावित हुए कि कुछ भी न बोल सके। वे असमंजस में पड़ गये कौन सर्वज्ञ है? कौन ज्ञानी है? विश्व में मेरे अतिरिक्त न कोई और सोचने लगे-'क्या ब्रह्मा, विष्णु, महेश, इन्द्र, चन्द्र, सूर्य, वरुण सर्वज्ञ है और न कोई ज्ञानी। देश के सारे ज्ञानियों/विद्वानों को तो मैने ही तो साक्षात् रूप में नहीं बैठे हैं? नहीं, शास्त्रोक्त लक्षणानुसार शास्त्रार्थ में पराजित कर दिया था, कोई शेष नहीं बचा था। फिर यह इनमें से यह एक भी नहीं हैं। फिर यह कौन हैं? ऐसी अनुपमेय एवं नया सर्वज्ञ कहाँ से पैदा हो गया। यह महावीर नाम भी मैंने पहले कभी असाधारण शान्त मुख मुद्रा तो वीतराग की ही हो सकती है। तो, विद्वत खण्ड/११४ शिक्षा-एक यशस्वी दशक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012030
Book TitleJain Vidyalay Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhupraj Jain
PublisherJain Vidyalaya Calcutta
Publication Year2002
Total Pages326
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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