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________________ वज्रऋषभनाराच- वज्र के समान सुदृढ़ संहनन था। इनके शरीर का ५६९ में प्रव्रज्या ग्रहण कर ली थी। दीक्षानन्तर अनेक प्रदेशों में रंग-रूप कसौटी पर रेखांकित स्वर्ण रेखा एवं कमल की केशर के विचरण करते हुए, अकथनीय उपसर्गों/परीषहों का समभाव से सहन समान पद्मवर्णी/गौरवर्णी था। विशाल एवं उन्नत ललाट था और करते हुए, उत्कट तपश्चर्या द्वारा शरीर को आतापना देते हुए, कमल-पुष्प के समान मनोहारी नयन थे। उक्त वर्णन से स्पष्ट है कि पूर्वकृत कर्म-परम्परा को निर्जर/क्षय करते हुए, साढ़े बारह वर्ष के इनकी शरीर-कान्ति देदीप्यमान और नयनाभिराम थी। दीर्घकालीन समय तक जो संयम-साधना में रत रहे और अन्त में अन्तिम यज्ञ-उस समय अपापा नगरी में वैभव सम्पन्न एवं ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय, वेदनीय इन चारों घाति कर्मों राज्यमान्य सोमिल नामक द्विजराज रहते थे। उन्होंने अपनी समृद्धि के का नाश कर, केवलज्ञान एवं केवलदर्शन प्राप्त कर ईस्वी पूर्व अनुसार अपनी नगरी में ही विशाल यज्ञ करवाने का आयोजन किया ५५७ में वैशाख शुक्ला १० को सर्वज्ञ बन गये थे। था। सोमिल ने यज्ञ के अनुष्ठान हेतु बिहार प्रदेशस्थ राजगृह, मिथिला श्रमण वर्धमान/महावीर जृम्भिका नगर के बाहर, ऋजुवालिका आदि स्थानों के अनेक दिग्गज कर्मकाण्डी विद्वानों को आमन्त्रित किया नदी के किनारे श्यामाक गाथापति के क्षेत्र में शालवृक्ष के नीचे, था। इनमें ग्यारह उद्भट याज्ञिक प्रमुखों- इन्द्रभूति, अग्निभूति, गोदाहिका आसन से उत्कट रूप में बैठे हुए ध्यानावस्था में वायुभूति, व्यक्त, सुधर्म, मण्डित, मौर्यपुत्र, अकम्पित, अचलभ्राता, केवलज्ञानी बने थे। मेतार्य एवं प्रभास-को तो बड़े आग्रह के साथ आमन्त्रित किया था। सर्वज्ञ बनते ही चतुर्विधनिकाय के देवों ने ज्ञान का महोत्सव किया उक्त ग्यारह आचार्य भी अपने विशाल छात्र/शिष्य समुदाय के साथ और तत्क्षण ही वहाँ समवसरण की रचना की। समवसरण में यज्ञ सम्पन्न कराने हेतु अपापा आ गये थे। विशेषावश्यक भाष्य के विराजमान होकर प्रभु ने प्रथम देशना दी, किन्तु वह निष्फल हुई। अनुसार इन यज्ञाचार्यों की शिष्य संख्या निम्न थी : इसीलिए यह "अच्छेरक" आश्चर्यकारक माना गया। तीर्थ-स्थापना इन्द्रभूति ५००, अग्निभूति ५००, वायुभूति ५००, व्यक्त का अभाव देखकर प्रभु ने वहाँ से रात्रि में ही विहार कर, वैशाख ५००, सुधर्म ५००, मंडित ३५०, मौर्यपुत्र ३५०, अकम्पित शुक्ला एकादशी को प्रातः समय में अपापा नगरी के महसेन नामक ३००, अचलभ्राता ३००, मेतार्य ३००, प्रभास ३००। इस उद्यान में पधारे। देवों ने तत्क्षण ही वहाँ विशाल, सुन्दर, मनोहारी एवं प्रकार इन ग्यारह आचार्यों की कुल शिष्य संख्या ४४०० थी। रमणीय समवसरण की एवं अष्ट प्रातिहार्यों की रचना की। महावीर __ इन्द्रभूति के अप्रतिम, वैदुष्य और प्रकृष्टतम यशोकीर्ति के कारण समवसरण के मध्य में अशोक वृक्ष के नीचे देव-निर्मित सिंहासन पर यज्ञानुष्ठान में मुख्य आचार्य के पद पर इनको अभिषिक्त किया गया बैठकर अपनी अमोघ दिव्यवाणी से स्वानुभूत धर्मदेशना देने लगे। था तथा इनके तत्त्वावधान में ही यज्ञ का अनुष्ठान प्रारम्भ हुआ था। केवलज्ञान से देदीप्यमान प्रभु के दर्शन करने और उनकी ।। यज्ञ के विशालतम आयोजन तथा इन्द्रभूति आदि उक्त दुर्धर्ष अमृतोपम देशना को सुनने के लिये अपापा नगरी का जन-समूह आचार्यों की कीर्ति से आकर्षित होकर दूर-दूर प्रदेशों से अपार लालायित हो उठा और हजारों नर-नारी समवसरण में जाने के लिये जनसमूह उस यज्ञ समारोह को देखने के लिए उमड़ पड़ा था। उमड़ पड़े। गली-गली में एक ही स्वर घोष/कलरव गूंज उठा ‘सर्वज्ञ उस समय अपापा नगरी का वह यज्ञ-स्थल एक साथ सहस्रों के दर्शन के लिये त्वरा से चलो। जो पहले दर्शन करेगा वह कण्ठों से उच्चरित वेद मन्त्रों की सुमधुर ध्वनि से गगन मंडल को भाग्यशाली होगा।' फलतः प्रात:काल से अपार जनमेदिनी गुंजायमान करने वाला हो गया था। यज्ञ वेदियों में हजारों सुवाओं समवसरण में पहुँच कर, धर्म-देशना सुनकर अपने जीवन को से दी जाने वाली घृतादि की आहुतियों की सुगन्ध एवं धूम के सफल/कृतकृत्य समझने लगी। घटाटोप से धरा, नभ और समस्त वातावरण एक साथ ही गुंजरित, देवगणों में केवलज्ञान का महोत्सव करने, सर्वज्ञ के दर्शन करने सुगन्धित एवं मेघाच्छन्न-सा हो उठा था। विशालतम यज्ञ-मण्डप में और उनकी दिव्यवाणी सुनने की होड़ा-होड़ मच गई। फलत: देवता उपस्थित जन-समूह आनन्द-विभोर होकर एक अनिर्वचनीय मस्ती/ भी अपनी देवांगनाओं के साथ स्वकीय-स्वकीय विमानों में बैठकर आह्लाद में झूमने लगा था। समवसरण की ओर वेग के साथ भागने लगे। हजारों देव-विमानों के महावीर का समवसरण आगमन से विशाल गगन-मण्डल भी आच्छादित हो गया। इधर क्षत्रिय कुण्ड के राजकुमार वर्धमान जिनका ईस्वी पूर्व याज्ञिकों का भ्रम-यज्ञ मण्डप में विराजमान अध्वर्य आचार्यों ५९९ में जन्म हुआ था और जिन्होंने आत्म-साधना विचार से प्रेरित और सहस्रों यज्ञ-दर्शकों की दृष्टि सहसा नभो-मण्डल की ओर उठी। होकर, राज्य-वैभव और गृहवास का पूर्णतः परित्याग कर ईस्वी पूर्व आकाश में एक साथ हजारों विमानों को देख कर यज्ञ में उपस्थित शिक्षा-एक यशस्वी दशक विद्वत खण्ड/११३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012030
Book TitleJain Vidyalay Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhupraj Jain
PublisherJain Vidyalaya Calcutta
Publication Year2002
Total Pages326
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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