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________________ ५) इण्या सच्ची श्रद्धा, आत्मविश्वास, स्वयं को बदलने की प्रकृति एवं जीवन के मूल्य आंकने की क्षमता ही सम्यक् दर्शन का दर्पण है। जीवन जीने की कला को सिद्ध करना है तो सर्वप्रथम स्वयं को सुधारना होगा। स्वयं को अपने जीवन के साथ जोड़ना होगा और स्वयं का समीक्षण करना होगा। जैसे - १) मेरे जीवन का हर क्षण जो मैं जी रहा हूँ वह मेरे लिए बोझ तो नही है? (लोक व्यवहार के विपरीत कार्य) २) सहभागिता की भावना मुझसे कितनी दूर है? ३) मैं स्वार्थ के कितने निकट हूँ? ४) वाहवाही की झूठी शान ने मुझे अहंकारी तो नहीं बनाया है? ईर्ष्या का मीठा जहर मैं कितनी बार निगल रहा हूँ? ६) मान अपमान के पीछे मैंने कितने शत्रु तैयार किए हैं? निंदा और बुराई औरों की करके मैंने कितने परिवार तोड़े है? मैंने स्वयं का मूल्यांकन अन्य के निर्णय से तो नही किया है? ९) जीवन की अमूल्य संपदा को मैंने इधर-उधर तो नहीं फेंक दिया है? १०) जीवन को सुखी बनाने के लिए औरों का सखचैन तो नहीं छीना है? चिंतन की इस सुघड़ शक्ति ने सम्यक दर्शन की सच्ची श्रद्धा, आत्म विश्वास, स्वयं को बदलने के संकल्प ने मुझे पुन: अपने अस्तित्व में स्थिर करने की अनुपात कृपा की है। रात्रिभोजन खोई संपदा को ढूंढ़ना, उसे एकत्रित करना, जीवन के अहिंसादिक पंच महाव्रत जैसा भगवान ने रात्रिभोजन उपयोग में लगाना, सम्यक दर्शन है। त्याग व्रत कहा है। रात्रि में जो चार प्रकार का आहार है वह यह सम्यक दर्शन मनुष्य को मानव, मानव से मानवेतर अभक्ष्यरूप है। जिस प्रकार का आहार का रंग होता है उस और मानवेतर से महान बनाता है। प्रकार के तमस्काय नाम के जीवन उस आहार में उत्पन्न होते जिसने जीवन में इस सिद्धांत को अपनाया है वही सही मायने हैं। रात्रिभोजन में इसके अतिरिक्त भी अनेक दोष हैं। रात्रि में जीवन जीने की कला का हकदार है। में भोजन करनेवाले को रसोई के लिए अग्नि जलानी पड़ती कामठी लाइन, राजनांद गाँव (म०प्र०) है; तब समीप की भीत पर रहे हुए निरपराधी सूक्ष्म जन्तु नष्ट होते हैं। ईंधन के लिये लाये हुए काष्ठादिक में रहे हुए जन्तु रात्रि में दीखने से नष्ट होते हैं; तथा सर्प के विष का, मकडी की लार का और मच्छरादिक सूक्ष्म जन्तुओं का भी भय रहता है। कदाचित् यह कुटुंब आदि को भयंकर रोग का . कारण भी हो जाता है। विद्वत् खण्ड/११० शिक्षा-एक यशस्वी दशक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012030
Book TitleJain Vidyalay Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhupraj Jain
PublisherJain Vidyalaya Calcutta
Publication Year2002
Total Pages326
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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