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________________ सर और पुराणों में ऐसे सैकड़ों सन्दर्भ हैं, जो भारतीय मनीषियों की निधाय दण्डं भूतेषु तसेसु थावरेसु च । अहिंसक चेतना के महत्वपूर्ण साक्ष्य माने जा सकते हैं यो न हन्ति न घातेति तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं ।। अहिंसा सकलोधर्मो हिंसाधर्मस्तथाहित । अर्थात् जो त्रस एवं स्थावर प्राणियों को पीड़ा नहीं देता है, न - महाभारत शां.पर्व अध्याय २७२/३० उनका घात करता है और न उनकी हिंसा करता है, उसे ही मैं अर्थात् अहिंसा को सम्पूर्ण धर्म और हिंसा को अधर्म कहा गया ब्राह्मण कहता हूँ। इस प्रकार पिटक ग्रन्थों में ऐसे सैकड़ों बुद्धवचन हैं, जो बौद्ध न भूतानामहिंसाया ज्यायान् धर्मोस्तथाहित । धर्म में अहिंसा की अवधारणा को स्पष्ट करते हैं। - महाभारत शा. पर्व २९२/३० जैन धर्म में अहिंसा अर्थात् प्राणीमात्र के प्रति अहिंसा की भावना से श्रेष्ठ कोई धर्म जैनधर्म में अहिंसा को धर्म का सार तत्व कहा गया है। इस . नहीं है। सम्बन्ध में आचारांग, सूत्रकृतांग, उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, अहिंसा परमोधर्मस्तथाहिंसा परो दमः । मूलाचार आदि अनेक ग्रन्थों में ऐसे हजारों उल्लेख हैं, जो जैनधर्म अहिंसा परमं दानमहिंसा परमं तपः ।। की अहिंसा प्रधान जीवन दृष्टि का सम्पोषण करते हैं। इस सम्बन्ध अहिंसा परमोयज्ञस्तथाहिंसा परं फलम् । में आगे विस्तार से चर्चा की गई है। यहाँ हम मात्र दो तीन सन्दर्भ अहिंसा परम मित्रमहिंसा परमं सुखम् ।। देकर अपने इस कथन की पुष्टि करेंगे। दशवैकालिक सूत्र में कहा - महाभारत अनुशासन पर्व ११६/२८-२९ गया हैअर्थात् अहिंसा सर्वश्रेष्ठधर्म है, वही उत्तम इन्द्रिय निग्रह है। धम्मो मंगलमुक्किट्ठे अहिंसा संजमो तवो।-दशवैकालिक १/१ अहिंसा ही सर्वश्रेष्ठ दान है, वही उत्तम तप है। अहिंसा ही सर्वश्रेष्ठ अर्थात् अहिंसा, संयम और तप रूप धर्म ही सर्वश्रेष्ठ मंगल है। यज्ञ है और वही परमोपलब्धि है। अहिंसा, परममित्र है, वही सूत्रकृतांग में कहा गया हैपरमसुख है। एयं खु णाणिणो सारं जंण हिंसति कंचण । इस प्रकार हम देखते हैं कि वैदिक एवं हिन्दूधर्म में ऐसे अहिंसा समयं चेव एतावंतं वियाणिया ।।-सूत्रकृतांग ११/१० अगणित संदर्भ हैं, जो अहिंसा की महत्ता को स्थापित करते हैं। ज्ञानी होने का सार यही है कि किसी जीव की हिंसा नहीं करते। बौद्ध धर्म में अहिंसा अहिंसा ही धर्म (सिद्धान्त) है- यह जानना चाहिये। मात्र यही नहीं भारतीय श्रमण परम्परा के प्रतिनिधिरूप जैन एवं अन्यत्र कहा गया हैबौद्ध धर्म भी अहिंसा के सर्वाधिक हिमायती रहे हैं। बौद्धधर्म के सव्वे जीवा वि इच्छन्ति जीविउं न मरिज्जिउं । पंचशीलों, जैनधर्म के पंच महाव्रतों और योगदर्शन के पंचयमों में तम्हा पाणवहं घोरं निग्गंथा वज्जयंतिणं ।। अहिंसा को प्रथम स्थान दिया। धम्मपद में भगवान बुद्ध ने कहा है- अर्थात् सभी सुख अनुकूल और दुःख प्रतिकूल है। इसीलिए न तेन आरियो होति येन पाणानि हिंसति । निर्ग्रन्थ प्राणी वध (हिंसा) का निषेध करते हैं। अहिंसा सव्वपाणानं अरियोति पवुच्चति ।। सिक्खधर्म में अहिंसा - धम्मपद धम्मट्ठवग्ग १५ भारतीय मूल के अन्य धर्मों में सिक्खधर्म का भी महत्वपूर्ण अर्थात् जो प्राणियों की हिंसा करता है, वह आर्य (सभ्य) नहीं स्थान है। इस धर्म के धर्मग्रन्थ में प्रथम गुरू नानकदेवजी कहते हैंहोता, अपितु जो सर्व प्राणियों के प्रति अहिंसक होता है, वही आर्य जे रत लग्गे कपडे जामा होए पलीत । कहा जाता है। जे रत पीवे मांसा तिन क्यों निर्मल चित्त ।। अहिंसका ये मुनयो निच्चं कायेन संवुता । अर्थात् यदि रक्त के लग जाने से वस्त्र अपवित्र हो जाता है, ते यन्ति अच्चुतं ठानं यत्थ गत्वा न सोचरे । तो फिर जो मनुष्य मांस खाते हैं या रक्त पीते हैं. उनका चित्त कैसे - धम्मपद कोधवग्ग ५ निर्मल या पवित्र रहेगा? अर्थात् जो मुनि काया से संवृत होकर सदैव अहिंसक होते हैं, अन्य धर्मों में अहिंसा वे उस अच्युत स्थान (निर्वाण) को प्राप्त करते हैं, जिसे प्राप्त करने न केवल भारतीय मूल के धर्मों में अपितु भारतीयेतर यहूदी, के पश्चात् शोक नहीं रहता। धम्मपद में अन्यत्र कहा गया है- ईसाई और इस्लाम धर्मों में भी अहिंसा के स्वर मुखर हुए हैं। यहूदी .. . विद्वत खण्ड/३० शिक्षा-एक यशस्वी दशक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012030
Book TitleJain Vidyalay Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhupraj Jain
PublisherJain Vidyalaya Calcutta
Publication Year2002
Total Pages326
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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