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3 जतनलाल रामपुरिया
का संगीत - उन बच्चों से बढ़कर, सच ही, और किस चीज की कल्पना हम करें?
बच्चे सृष्टि की अनन्यतम कृति हैं - निर्विकार वृत्तियाँ, निश्छल आचरण, निष्कलुष मन। सहज, सरल और प्रकृतिगत। भीतर और बाहर समरूप। न कोई मुखौटा, न आडम्बर, न औपचारिकता। सब कुछ अनावृत और निरावरण। लड़े, झगड़ें, रूठे पर दूसरे ही क्षण फिर वही आत्मीयता। मलिनता मन को छुये ही नहीं। खामेमि सव्वजीवे - क्षमादान और क्षमायाचना के शब्द ओंठों पर नहीं, अन्तर ही उनसे आप्लावित। अध्यात्म का हर पाठ तो इनके स्वभाव में है। फिर कौन-सा ज्ञान इन्हें दें? बल्कि इनसे तो हम ही कुछ सीखें। उपदेशों की आवश्यकता तो यथार्थ में बड़ों को है। तो थोड़ा अपनी ओर मुड़ें। यह मुहूर्त सचमुच कुछ देर थमने का है, एक चिर-उपेक्षित प्रश्न का समाधान पा लेने का है - बच्चे बड़े होकर क्यों उन विकारों से ग्रस्त होते हैं जिनसे यह धरती त्रस्त है?
जीव के बारे में बतला रहा व्यक्ति अनजाने ही अजीव की व्याख्या कर रहा होता है। पुण्य के विश्लेषण में पाप की परिभाषा
छिपी रहती है। आश्रव (कर्म-ग्रहण) का ज्ञान निर्जरा (कर्म-क्षय) की और फिर?
प्रक्रिया है। बंध और मोक्ष भी एक दूसरे की परिक्रमा करते हैं और बिलकल इस क्षण तक मेरी कल्पना में बच्चे थे। उन्हें ही यहाँ भी देखिये, बच्चों से प्रारम्भ हई बात अनायास ही मुझे बड़ों के सम्बोधित करने की चाह लिये मैं ये पंक्तियाँ लिखने बैठा। पर इसी पास ले आई; सप्रयास स्वयं तक पहुँचने का उपक्रम तो सब बीच मेरी छ: वर्षीया दौहित्री समता आई और मेरे पास बैठकर बातें उपलब्धियों का प्रथम सोपान है ही। करने लगी। बड़ी सीधी-सरल बच्ची है। उच्छंखलता का नाम भी सप्रयास स्वयं तक पहुँचने का उपक्रम! दो शब्दों का संदेश नहीं। उसके चचेरे भाई को सब 'चीनू' कहकर बुलाते हैं। वह भगवान महावीर का - तिन्नाणं तारयाणं। पहले स्वयं तिरो, फिर समता से एक-दो वर्ष बड़ा है, कुछ चंचल भी। मैंने समता से पूछा- दसरों को तारो। स्वयं को तारना सार्थक जीवन की वर्णमाला के "चीन तुम्हें मारता है क्या?" वह बोली- “कभी-कभी मार देता पहले अक्षर हैं। दसरों का तारना तो उसकी अंतिम पंक्ति है। पर है।'' मैंने पूछा- "क्यों?'' उसने जो जवाब दिया वह मेरे लिये विडम्बना ऐसी कि हम अन्तिम पंक्ति से ही अपनी वर्णमाला शरु बच्चों के निर्मल-निर्विकार अन्त:करण का साक्षात् दर्शन था। उसने करते हैं। यह क्षण इस क्रम को बदलने का है। उपदेशों की जगह कहा- “कोई-कोई समय मुझसे भूल हो जाती है।" मैं अचानक आचरण को मखरित करने का है: कछ विवेकशील व्यक्तियों के जैसे गहरी नींद से जागा - कहाँ ओसकणों की पवित्रता लिये ये । चिंतन की गहराई में उतरने का है। बच्चे जिन्हें हम अबोध कहते हैं और कहाँ अहं और आग्रह में तो आगे बढ़ें अब! आकंठ डूबे हम! बच्चों के इस अन्त:स्वरूप पर जब दृष्टि पड़ी तो मेरा मन कुछ उलझ-उलझ गया। उन्हें कुछ कहने से पूर्व ही मेरे
मेरे दादाजी श्री पूनमचंदजी रामपुरिया - हिम्मत के धनी, विचारों ने करवट बदल ली।
पुरुषार्थ के प्रतीक, प्रत्युत्पन्नमति और दूरदर्शी। उस समय की बात प्रकृति के वरदान अनन्त हैं, उतने ही उनके रूप भी। पर बच्चों
जब राजस्थान के बहुत से घरों में गाय-भैंस होती थीं। हमारे घर में से बढ़कर वह भी और कौन-सा उपहार हमें दे। पक्षियों का कलरव
भी थीं। अधिकांश परिवार कलकत्ता में रहता था। महीने-दो-महीने जिनकी भाषा है और परियों का देश जिनका स्वप्नलोक, जो हमारे
बाद घर का घी कलकत्ता भेजा जाता था। कुछ घी इकट्ठा हुआ। मन में इन्द्रधनुष के रंग बिखेरते हैं और आँगन में फूलों की मुस्कान,
दादाजी ठाकुर रामसिंहजी को इसे पैक करने का कह कर संतों का जिनकी हर श्वास मलयज का झोंका है और हर किलकारी निर्झर
व्याख्यान सुनने चले गये। रामसिंहजी डालडा घी का एक खाली
शिक्षा-एक यशस्वी दशक
विद्वत खण्ड/६३
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