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________________ भिक्षा O पद्मचन्द नाहटा एक योगी महात्मा उसी गाँव की ओर से निकल रहे थे। भिक्षा हेतु गाँव के भीतर घुसे। गलियों में खेल रहे बच्चों ने बताया कि आज सुब्रत बाबू के यहाँ पूरे गाँव का भोज है, सभी वहीं खाना खायेंगे। महात्मा भी उसी ओर चल पड़े। सुब्रत घर के बाहर खटिया पर अपने साथियों के साथ व्यवस्था सम्बन्धी चर्चा कर रहा था। आज खुशी से उसका सीना फुला हुआ था क्योंकि आज के बाद वह गाँव का सबसे बड़ा आदमी कहा जायेगा। पिछले कई सालों में किसी ने पूरे गाँव को खिलाने का साहस नहीं किया था। सुब्रत ने देखा कि एक महात्मा उसी के घर की तरफ चले आ रहे हैं। उसने मन ही मन सोचा मेरे भाग्य कितने अच्छे हैं कि आज एक महात्मा चल कर मेरे घर आ रहे हैं। इनका आदर सत्कार कर इन्हें भी भोजन करवाऊँगा। यह सोच वह उठने को हुआ कि महात्माजी को घर ले आऊँ। किन्तु देखता है कि घर के नजदीक आते-आते महात्मा रुक गये। उनकी दृष्टि उन चार बकरों पर पड़ी। वे घर के अन्दर न आकर बकरों के नजदीक गये। महात्मा योगी थे, उन्हें पशुओं की भाषा का भी ज्ञान था। उन्होंने देखा कि तीन बकरों की आँखों में मृत्यु का भय था। वे अपना अन्त निकट जान दु:खी थे किन्तु चौथा शान्त भाव से खड़ा था। उसकी आँखों में चमक थी। विष्णुपुर गाँव में सुब्रत नाम का एक किसान रहता था। उसके महात्मा ने उसकी ही भाषा में उस बकरे को प्रश्न किया कि क्या पिता विक्रम बाबू मरते समय सुब्रत के लिए पूँजी तो नाम मात्र ही उसे मरने का भय नहीं? बकरे ने कहा हे, महात्मा ! मृत्यु तो छोड़ गये थे। हाँ, एक बड़ा बंजर भू भाग अवश्य छोड़ गये। सुब्रत निश्चित है। फिर बकरे तो कटने के लिये ही जन्म लेते हैं किन्तु ने काफी मेहनत की और उस बंजर भूमि को उपजाऊ बना कर मैं आज बहत खश हैं। महात्मा ने अपने ज्ञान से सारी स्थिति अच्छे पैसे जोड़ लिये। वह अपनी पत्नी और दो बच्चों के साथ समझते हए भी बकरे से पछा- तुम्हारी खशी का क्या कारण है? शान्तिपूर्वक रह रहा था। उसका सपना था कि वह बड़ा आदमी बकरे ने कहा-हे योगीराज! मैं पूर्व भव में इसी गाँव में रहने वाला कहलाये और गाँव का मुखिया बने। एक रात भोजन करके आराम विक्रम नाम का किसान था। मेरे एक पुत्र था। मैं साधारण स्थिति करते समय उसने अपने दिल की बात पत्नी को बताई और दोनों का किसान अपने पुत्र को सारी खुशियाँ न दे सका। इस घर का मिल कर योजना बनाने लगे। यह हुआ कि वे एक भोज का मालिक सबत मेरा ही पत्र है। आज इसकी सम्पन्नता और मान आयोजन करेंगे जिसमें सभी गाँववासी आमंत्रित किये जायेंगे। इससे देखकर मैं इतना हर्षित हुआ हूँ कि मरने का गम नहीं। औरों के होने वाले मुखिया के चुनाव में उन्हें वोट मिलेंगे, बच्चों का सम्बन्ध हाथों न मर कर अपने ही घर में मर रहा हूँ। भी अच्छा होगा। तिथि ५ दिन बाद आने वाले पिताजी के श्राद्ध की महात्मा भिक्षा की आशा छोड़ वापस लौटने लगे तब तक निश्चित की गयी। सुब्रत वहाँ आ पहुँचा। उसने महात्मा के चरण स्पर्श किये और दूसरे दिन से ही सुब्रत तैयारी में जुट गया। पूरे गाँव को । निवेदन करने लगा कि महात्मन! मैं धन्य हूँ जो आप जैसे योगी निमंत्रण दिया। गाँव के नामी हलवाई को बुला कर सारी व्यवस्था हमारे गाँव ही नहीं, घर भी पधारे। आज मेरे पिताजी की बरसी है, समझा दी गई। आयोजन के दिन सुबह से ही सुब्रत के घर काफी अन्दर यज्ञ चल रहा है, आप भोजन करके ही पधारें, इससे मेरे चहल-पहल थी। सारे कार्यकर्ता भी जुट गये और बाजार से सामान दिवंगत पिता की आत्मा को बड़ी शान्ति मिलेगी। सुब्रत ने महात्मा आने लगा। घर के पास के दालान में भट्टियाँ जल रहीं थीं और पकवान बनाये जा रहे थे। साथ ही ४ बड़े बकरे भी वहाँ लाये गये महात्मा मुस्कुराये और बड़े शान्त भाव से कहा-मैं एक थे जिनको एक खूटे से बाँध दिया गया। सन्यासी हूँ, भिक्षा लेकर खाता हूँ, तुम्हारे यहाँ का भोजन मेरे अनुकूल विद्वत खण्ड/९४ शिक्षा-एक यशस्वी दशक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012030
Book TitleJain Vidyalay Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhupraj Jain
PublisherJain Vidyalaya Calcutta
Publication Year2002
Total Pages326
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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