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________________ श्रीचन्द नाहटा एक बार की बात है कि एक इलाके में एक सिद्ध पुरुष रहते थे। एक दिन उनके पास एक स्त्री अपने लड़के को लेकर पहुँची । उसने सिद्ध पुरुष से कहा, "महाराज, मेरा यह बच्चा मिठाइयाँ बहुत खाता है, कुछ उपाय बताइये जिससे इस की यह आदत बदली जा सके।" साधु ने कहा, "पन्द्रह दिन बाद आओ।" स्त्री अपने बच्चे को लेकर चली गई। वह पन्द्रह दिन बाद महात्मा के पास आई। महात्माजी ने कहा, "प्रिय बच्चे मिठाई अधिक खाना अच्छा नहीं है। मैं यह भी नहीं कहता कि मिठाई खाना एकदम बन्द कर दो बल्कि जितनी मिठाई खाते हो उसका चौथाई भाग खाओ।" किसी भी विद्यालय में केवल पाठ्य पुस्तकों के रटा देने से ही विद्यालय के कर्तव्य की इति श्री नहीं हो जाती, बल्कि अच्छी रुचि स्वच्छ आदतें और उचित मूल्यों का भी ज्ञान कराना चाहिए। आज के बच्चे कल के भविष्य का निर्माण करते हैं कल यही देश के शासक भी होंगे। ये ही राष्ट्र की सच्ची निधि हैं। इसलिए इनका सर्वतोमुखी विकास आवश्यक है। मुझे सुनकर हर्ष होता है कि जैन विद्यालय लड़के-लड़कियों की सर्वतोमुखी विकास के लिए प्रयत्नशील है। विद्यालय अपना गौरवमय दशक मनाने जा रहा है और एक पत्रिका भी प्रकाशित कर रहा है। इस अवसर पर मैं शिक्षक, शिक्षिकाओं तथा अन्य जे आचरहि नर न घनेरे सम्बन्धित व्यक्तियों को हार्दिक बधाई देता हूँ तथा विद्यालय के गौरव को अक्षुण्ण रखने की कामना करता हूँ। स्त्री ने कहा, "अगर यही बात कहनी थी तो आप इसे उसी समय कह देते तो मुझे फिर आना न पड़ता।" साधु ने कहा, "मैं स्वयं मिठाई खाता था इसलिए मैंने पन्द्रह दिन मिठाई न खाकर देखा और मैने अनुभव किया कि मिठाई न खाने से कुछ नुकसान नहीं है बल्कि शरीर में कुछ स्फूर्ति अधिक है। इसलिए मैंने अब बच्चे को यह शिक्षा दी। शिक्षा देने से पहले उस पर आचरण आवश्यक है अन्यथा वह शिक्षा प्रभावी नहीं हो सकती। आज की शिक्षा अप्रभावी इसलिए है कि 'पर उपदेश कुशल बहुतेरे, जे आचरहिं नर न घनेरे' । अतः मैंने स्वयं उस पर आचरण कर अपने को इस योग्य बनाया।" कहानी समाप्त हुई। इसका तात्पर्य यह है कि बच्चों को वही शिक्षा दी जानी चाहिए जिसे शिक्षक-शिक्षिकाएँ स्वयं आचरित कर शिक्षा - एक यशस्वी दशक Jain Education International सकें। विशेष कर चरित्र-निर्माण के क्षेत्र में तो यह अत्यन्त आवश्यक है। एक झूठ बोलने वाला, सत्य बोलने की शिक्षा नहीं दे सकता। एक पान पराग खानेवाला इसे न खाने की शिक्षा देने में कठिनाई का अनुभव करेगा। इसी प्रकार और भी बुराइयाँ हैं जिनके लिए शिक्षक को भी आदर्श होना चाहिए। हमें प्रसन्नता है कि सौभाग्य से श्री जैन विद्यालय के अध्यापक अध्यापिकाएँ आदर्शवान हैं। इनमें बड़ों के प्रति सम्मान तथा छोटों के प्रति प्यार है। For Private & Personal Use Only उपाध्यक्ष श्री जैन हॉस्पीटल एण्ड रिसर्च सेन्टर, बड़ा सभा खण्ड / १२ www.jainelibrary.org
SR No.012030
Book TitleJain Vidyalay Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhupraj Jain
PublisherJain Vidyalaya Calcutta
Publication Year2002
Total Pages326
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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