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________________ → सत्येन्द्र मिश्र, बी. इ. आई. टी. (प्रथम वर्ष) काम का बँटवारा जो मनुष्य अपने कार्य को, ठीक तरह से समझ कर योग्यतापूर्वक संपादित करता है, प्राप्त दायित्वों का यथोचित संरक्षण एवं विकास करता है, वह सब जगह सफलता एवं सम्मान प्राप्त करता है। राजगृह में एक धन्ना सार्थवाह रहता था। वह वैभवशाली भी था और बुद्धिमान भी। उसकी भद्रा नाम की पत्नी बड़ी सुशील और गृहकार्य में निपुण थी । धन्ना सेठ के चार पुत्र थे- धनपाल, धनदेव, धनगोप और धनरक्षित । चारों पुत्रों की चार पत्नियाँ थीं- उज्झिका, भोगवती, रक्षिका और रोहिणी । यह भरा पूरा परिवार बहुत ही सम्पन्न और सुखी था । एक दिन सार्थवाह के मन में विचार उठा- "मेरा शरीर जर्जर होने लग गया है, न जाने किस दिन यह साँस दगा दे जाए ! परिवार और घर की जिम्मेदारियाँ बहुत हैं, इधर कर्त्तव्य-शक्ति क्षीण हो रही 'है, अतः मैं अपने जीवनकाल में ही जिम्मेदारियों का कुछ बँटवारा कर दूँ, तो अच्छा हो। इससे मेरी मृत्यु के बाद भी परिवार की सब व्यवस्था ठीक बनी रहेगी। सब मिल-जुलकर आनन्द से रहेंगे।" कुटुम्ब एवं परिवार की सुन्दर व्यवस्था का मूलाधार गृहलक्ष्मियों पर है। अतः सार्थवाह ने सबसे पहले घर की जिम्मेदारी पुत्रवधुओं को सौंपने का निश्चय किया । किन्तु, कौन किस कार्य के योग्य है, यह देख लेना भी जरूरी थी। अतएव सार्थवाह ने उनकी शिक्षा - एक यशस्वी दशक Jain Education International रुचि और योग्यता की परीक्षा का एक मनोवैज्ञानिक तरीका अपनाया । एक दिन सार्थवाह ने अपने समस्त परिजनों को एक विशाल प्रीतिभोज दिया। भोज के बाद परिजनों के समक्ष उसने अपनी पुत्रवधुओं को बुलाया। चारों पुत्रवधुएँ ससुर के समक्ष उपस्थित हुईं और उनके चरण छूकर विनम्रतापूर्वक एक ओर खड़ी हो गई । सार्थवाह ने पुत्रवधुओं को न कोई मूल्यवान आभूषण दिया और न कोई सुन्दर वस्त्र ही । उसने उनको दिये धान (चावल) के पाँच-पाँच दाने और कहा - "इन्हें सँभाल कर रखना, जब माँगूं तब मुझे वापिस ला कर देना।" पुत्रवधुओं ने दाने लिये और अपने-अपने स्थान पर जाकर विचार करने लगीं । पहली पुत्रवधू उज्झिका का मन वृद्ध ससुर के इस व्यवहार और आदेश पर हँस पड़ा। विचार किया कि "इस समृद्ध घर में चावलों का दुष्काल तो पड़ा नहीं है! धान के अनेक कोष्ठागार भरे पड़े हैं। फिर क्या जरूरत है, इन्हें संभाल कर रखने की ? ससुर के माँगने पर पाँच क्या, हजार दाने भी दिये जा सकते हैं।" अतः उसने दाने फेंक दिये। दूसरी पुत्रवधू ने सोचा- "ससुरजी ने जब इतने समारोह के साथ ये दाने दिये है, तो जरूर इनमें कुछ करामात होनी चाहिए। हो सकता है, किसी सिद्ध-पुरुष का प्रसाद ही हो, अतः खा लेने चाहिए ।" उसने धान छीलकर चावल के दाने खा लिए। तीसरी का मन भी कुछ इसी प्रकार के विचारों में लग गया कि- "ससुर ने जब इन्हें सुरक्षित रखने को कहा है, तो अवश्य ही ये चमत्कारी दाने होगे।” वह कुछ अधिक समझदार थी, उसने धान के दाने एक सुन्दर वस्त्र में बाँध कर अपनी रत्नकरण्डिका (रत्नों की मंजूषा) में सँभाल कर रख दिए, ताकि माँगने पर उन्हें तुरन्त दिए जा सकें। चौथी बहू इस उपक्रम की गहराई में उतरने लगी- "ससुरजी हजारों में एक बुद्धिमान हैं। उन्होंने पाँच दाने देने के लिए इतना बड़ा समारोह निरर्थक तो किया नहीं होगा ? अवश्य ही दानों के पीछे कोई विशेष प्रयोजन होना चाहिए। अतः इन पाँच दानों के बदले में पाँच लाख या पाँच करोड़ दाने दिये जा सकें, ऐसा उपाय करना चाहिए। ज्यों के त्यों पाँच के पाँच ही दाने लौटाए, तो क्या लौटाए ?" रोहिणी का प्रबुद्ध मानस घटना की सूक्ष्मता को पकड़ रहा था। उसने धान के पाँचों दाने अपने पिता के घर पर भेज दिये और विशेष ढंग से उन पाँच दानों की खेती कराने के लिए स्वतंत्र व्यवस्था करने के लिए भी कहला दिया। For Private & Personal Use Only विद्यालय खण्ड / ५९ www.jainelibrary.org
SR No.012030
Book TitleJain Vidyalay Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhupraj Jain
PublisherJain Vidyalaya Calcutta
Publication Year2002
Total Pages326
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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